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________________ जैनयोग : चित्त-समाधि नित्यता एवं अनित्यता ये दोनों धर्म उत्पत्ति क्रिया से सम्बन्धित हैं। प्रतीत्यसंविद्भाव अर्थात् पदार्थों का परस्पर सापेक्ष अस्तित्व या ज्ञान का विषय होना। यह सापेक्षता विभिन्न कर्ता, कर्म, करण आदि कारकों पर आधारित है। किसी वस्तु का अस्तित्व या ज्ञान का विषय होना परस्पर सापेक्ष कारकों पर अाधारित है। तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति 'प्रतीत्यसमुत्पन्न' होने के कारण अनित्य है, परन्तु वह अपने अविच्छिन्न प्रवाह के कारण नित्य भी है। 'प्रतीत्यसमुत्पाद' सिद्धान्त को स्वीकृत करने पर नित्यत्व-अनित्यत्व रूप अनेकान्त में कोई बाधा नहीं आती। इस सत्य की पुष्टि प्रस्तुत श्लोक के उत्तरार्ध में की गई है। वस्तुतः बौद्धदर्शन की यह मान्यता है कि वस्तु न शाश्वत है और न अशाश्वत। यह मान्यता तभी बुद्धिगम्य हो सकती है जब हम नित्यता-अनित्यता रूप अनेकान्त को स्वीकार करें। अभिधर्म कोश (2.46) में कहा गया है-जन्यस्य जनिका जातिन हेतुप्रत्यययोविनायहा 'जाति' को एक स्वतन्त्र धर्म मानकर प्रतिपादन किया गया है कि जन्य पदार्थमात्र की जननी 'जाति' है। साथ-साथ यह भी कहा गया है कि उपयुक्त हेतु एवं प्रत्ययों के बिना किसी जन्य पदार्थ की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। अतः एक प्रकार का विरोध उपस्थित होता है कि जब सब जन्य पदार्थों की जनिका जाति है तो हेतु एवं प्रत्यय जन्य पदार्थों का क्या उपकार करते हैं ? अर्थात् जाति एवं हेतु -- इन दोनों में किसी एक का अस्तित्व मानने पर भी सारी संगति बैठ जाती है। यदि जाति को मानना ही हो तो उसे नित्य-अनित्य उभयात्मक मानना ही युक्तियुक्त होगा। इस तथ्य को सिद्धसेन दिवाकर ने प्रस्तुत श्लोक में प्रतिपादित किया है / जातिलिगपरीणामकालव्यक्तिप्रयोजनाः। संज्ञा मिथ्याऽपरा दृष्टाः परिक्षिण्वन्त्यचेतसः // 13 // जाति (सामान्य-लक्षण), लिङ्ग (हेतु अनुमान के साधन), परिणाम (पदार्थों के परिणमन सम्बन्धी सिद्धान्त), काल (अतीत आदि कालों का अस्तित्व), व्यक्ति (स्वलक्षण), प्रयोजन (प्राशय या अभिप्राय)-इन विषयों पर मिथ्या संज्ञाएं आधारित हैं, जो अज्ञानी के दुःख के हेतु बनती हैं। इसी तथ्य का निरूपण दृष्टि-प्रबोध द्वात्रिशिका के चतुर्थ श्लोक में सिद्धसेन दिवाकर ने इस प्रकार किया है प्रमाणाम्यनुवर्तन्ते विषये सर्ववादिनाम् / संज्ञाभिप्रायभेदात्तु विवदन्ते तपस्विनः // प्रमाण अपने-अपने विषयों में सहज रूप से प्रवृत्त होते हैं। यह तथ्य सब चिन्तकों के लिए समान रूप से लागू होता है, परन्तु विभिन्न दृष्टियों के समर्थक तथा कथित तपस्वी दार्शनिक अपनी-अपनी मान्यताओं को लेकर भिन्न-भिन्न संज्ञाओं एवं प्राशयों के कारण वाद-विवाद में प्रवृत्त होते हैं इस तथ्य का समर्थन प्राचार्य वसुबन्धु ने भी अपने अभिधर्म कोष (I. 21) में इस प्रकार किया है विवादमूलसंसारहेतुत्वात् क्रमकारणात् / चैतेभ्यो वेदनासंज्ञे पृथकस्कन्धौ निवेशितौ //
SR No.032865
Book TitleJaina Meditation Citta Samadhi Jaina Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages170
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size12 MB
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