________________ [65 .श्रीमती रानी रयनमंजूषा प्यारी स्त्रीसे देश पर्यटनके लिये विदा होकर कौशाम्बीपुरके प्रसिद्ध व्यापारी धवलसेठके साथ अपनेको गुप्त रखे हुए साधारण जनके समान राजा श्रीपाल घूमता घूमता हंसद्वीपकी राजधानीमें आ पहुंचा। यह जैन धर्मका पक्का श्रद्धालु था। इसलिये श्री वीतराग परमेश्वरके दर्शनोंकी खोजमें शहरमें निकला। खोजते खोजते यह उसी सहस्रकूट चैत्यालयके पास आ पहुंचा जिसके किवाड़ किसीसे खुलते भी नहीं थे। राजा श्रीपालको दर्शनोंकी बड़ी उत्कण्ठा थी इसलिये उन्होंने ईश्वरका नाम स्मरण करके किवाड़ पर पूर्ण बलके साथ धक्का दिया। कर्णभेदी शब्दके साथ किवाड़ खुल गये और मंदिरके भीतर प्रवेश कर भक्तिभावसे श्री भगवानके दर्शन कर अपने नेत्रोंको शांत किया। इधर किवाड़ खुलनेकी आवाजसे पहरेदारोंमें कोलाहल मच गया। शीघ्र ही महाराजको शुभ समाचार सुनाया गया। राजाने अपनी कन्याके योग्य वरकी अनायास प्राप्तिसे अत्यन्त आनंद मनाया तथा शुभ तिथिमें रयनमंजूषाका विवाह राजा श्रीपालके साथ कर दिया। राजा श्रीपाल कुछ दिन अपनी नवीन ससुरालमें अत्यंत सुखके साथ रहे। परंतु जब व्यापारी धनकुबेर धवलसेठ अपने व्यापारकी समाप्ति कर हंसद्वीपसे बिदा होने लगा तब राजा श्रीपालको अपने देश पर्यटनकी याद आई और वे जानेको उन्नत हुए। यद्यपि उन्होंने राजकुमारी रयनमंजूषाको विदेशके क्लेशोंको भयानक रूपसे बतलाकर उसको राजप्रासादोंमें रहनेका ही अनुरोध किया परंतु कुमारीने पति-वियोगके दुःखोंके सहन करनेके लिये अपनेको असमर्थ बतलाकर तथा पतिकी सेवा ही अपना श्रेष्ठ धर्म समझाकर पतिके साथ रहना ही