________________ श्रीमती मैनासुन्दरी [35 आराम होता गया। और अष्टाह्निक पर्वके अंतिम दिन राजा श्रीपालका शरीर महा भयानक कुष्ट रोगसे सम्पूर्ण निवृत्त होकर बहुत ही सुन्दर हो गया। राजकुमारीके भाग्यकी जय हुई और राजा पहुपालको लज्जावन्त ही नीचा देखना पडा। राजा श्रीपाल और कुमारी मैनासुन्दरी उज्जैनमें रहकर आनन्दसे समय व्यतीत करने लगे। एक दिन रात्रिके समय जब कि चारों ओर शब्द लेश मात्र भी नहीं सुनाई देता था यकायक राजा श्रीपालकी नींद खुल गई। और उन्हें अपनी जन्मभूमि, राज्य कुल आदिकी चिंताने आ घेरा। उन्होंने विचारा कि अब मेरा यहां रहना अयोग्य है मुझे अपने राज्य और वंशकी रक्षा करना चाहिए। परंतु विना ऐश्वर्य और वैभवके राजधानीमें जाना भी योग्य नहीं है। इसलिये मान प्रतिष्ठा प्राप्त करनेके लिये प्रथम विदेशको जाना चाहिए। पश्चात धनधान्य आदिसे परिपूर्ण होकर स्वदेश जावेंगे। ऐसा विचार निश्चय कर उन्होंने अपनी भार्याको भी सुनाया। मैनासुन्दरी पहिले तो स्वामीके विछोहके दुःखोंका अनुभव कर बहुत दुःखित हुई। परंतु फिर सोच समझकर उन्होने स्वीमीको विदेश जानेकी अनुमति दी और अपनेको भी साथ ले चलनेका अनुरोध किया। परंतु विदेशमें होनेवाले दुःखोंका अनुभव कर राजा श्रीपाल मैनासुन्दरीको साथ न ले जाकर सिर्फ अकेले विदेश यात्राको निकले और बारह सालके भीतर आनेका वादा कर गये। स्वामीके विदेशगमनके पश्चात् मैनासुन्दरी उनके वियोगसे अति दुःखित रहती थी। जब बारह साल पूर्ण होनेको आये तब वह स्वामीके आनेके दिन, घण्टे घण्टे और पल पल गिनने लगी। बारह साल पूर्ण हो गये परंतु स्वामीके दर्शन