________________ प्रस्तावना : क्षयोपशम भाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष है, वह मोह के नाश से स्वयमेव होगा; निचली अवस्था वाला शुद्धोपयोग का साधन कैसे करे? तथा द्रव्यानुयोग में शुद्धोपयोग करने का ही मुख्य उपदेश है; इसलिए वहाँ छद्मस्थ, जिस काल में बुद्धिगोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्यरूप परिणामों को छोडकर, आत्मानुभवनादि कार्यों में प्रवर्ते, उस काल उसे 'शुद्धोपयोगी' कहते यद्यपि यहाँ केवलज्ञानगोचर सूक्ष्म रागादिक हैं, तथापि उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की, अपनी बुद्धिगोचर रागादिक को छोडता है, इस अपेक्षा उसे 'शुद्धोपयोगी' कहा है। इसी प्रकार स्व-पर-श्रद्धानादिक होने पर सम्यक्त्वादि कहे, वह बुद्धिगोचर अपेक्षा से निरूपण है, सूक्ष्म भावों की अपेक्षा गुणस्थानादि में सम्यक्त्वादि का निरूपण करणानुयोग में पाया जाता है। इसी प्रकार अन्यत्र जानना। इसलिए द्रव्यानुयोग के कथन की विधि करणानुयोग से मिलाना चाहे तो कहीं तो मिलती है, कहीं नहीं मिलती। जिस प्रकार यथाख्यात-चारित्र होने पर तो दोनों अपेक्षा शुद्धोपयोग है, परन्तु निचली अवस्था में द्रव्यानुयोग अपेक्षा से तो कदाचित् शुद्धोपयोग होता है, परन्तु करणानुयोग अपेक्षा से सदाकाल कषाय अंश के सद्भाव से शुद्धोपयोग नहीं है। इसी प्रकार अन्य कथन जान लेना।' (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 285-286) 8. यद्यपि चतुर्थ-पंचम गुणस्थानों में भी कदाचित् सामायिकादि के काल में बुद्धिपूर्वक कषाय का अभाव होने से 'शुद्धोपयोग' भी होता है, परन्तु उसकी बहुलता नहीं होने से उसे गौण किया गया है; अन्यथा वहाँ शुद्धोपयोग के अभाव में चतुर्थ गुणस्थान में निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एवं पंचम गुणस्थान में निश्चय व्रतादि-प्रतिमादि की प्राप्ति भी नहीं हो सकेगी। (देखो, प्रवचनसार गाथा 80 की दोनों आचार्यों की टीकाएँ एवं लेखक की अन्य पुस्तक 'सम्यक्त्व चर्चा' भी अवश्य देखें।) 9. द्रव्यानुयोग या अध्यात्मशैली की अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती क्षयोपशमसम्यक्त्व, वेदक-सम्यक्त्व, उपशम-सम्यक्त्व या क्षायिक-सम्यक्त्व; किसी भी