________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' 21 फिर आगे उन्होंने उसकी युक्ति से सिद्धि भी की है। अन्त में सिद्ध किया है कि अनन्तानुबन्धी की दर्शनमोहनीयता और चारित्रमोहनीयता सिद्ध है। (सिद्धं तस्स दंसणमोहणीयत्तं चारित्तमोहनीयत्तं च - Ydbm 6/42) अनन्तानुबन्धी के गये बिना तीन काल में किसी को सम्यक्त्व हुआ नहीं तथा होता नहीं। उसी प्रकार यदि सम्यक्त्वी को अनन्तानुबन्धी का उदय आ जाय (चाहे मिथ्यात्व में न भी आओ) तो भी उस जीव के सम्यक्त्व नाशित (नष्ट) हो जाता है (गो. जी. 20, पंचसंग्रह 1/9) - यह है महिमा अनन्तानुबन्धी की। अतः प्रतिबन्धक-कारण की परिभाषा, अनन्तानुबन्धी में स्पष्टतः लागू होने से अनन्तानुबन्धी परमार्थतः चारित्रमोह की प्रकृति होते हुए अर्थात् चारित्र की घातक होते हुए भी (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ. 499, धर्मपुरा, दिल्ली) और इसी की मुख्यता से आगम में कथन किया जाने पर भी (तस्य चारित्रावरणत्वात् - धवल 1/ 166); बाह्य कारण (जो कि अत्यन्त समीचीन व सुघटित है) की दृष्टि से वह नियम से सम्यक्त्व की भी घातक है, प्रतिबन्धक है। ज्ञानी जीव, अन्तरंग कारण चारित्रघात करने में तथा बाह्य कारण (सम्यक्त्व घातने में) - इन दोनों कारणों रूप दो शक्तियों के अनन्तानुबन्धी में होने का सम्मान करते हैं, एक का भी अपलाप नहीं करते; क्योंकि बाह्य कारण का अपलाप करने पर समस्त कर्म-द्रव्यों में जीव के प्रति फलदान-शक्ति, भगवान की समवसरण में दिव्यध्वनि आदि सब प्रलाप मात्र सिद्ध हो जायेंगे। शंका 3 - विसंयोजित अनन्तानुबन्धी वाला जीव, मिथ्यात्व में आने पर एक आवली काल तक उसे अनन्तानुबन्धी का उदय नहीं होता। उस समय बँधनेवाले मिथ्यात्व-प्रत्यय कर्मों में स्थिति-अनुभाग कौन डालता है? मिथ्यात्व ही डालता है - ऐसा उत्तर ठीक है क्या? इसका आगम-प्रमाण है क्या? समाधान - उस समय प्रथम आवली कालवर्ती जीव के अनन्तानुबन्धी का उदय नहीं होता। (गो.क.गा. 478, धवल 8/25, पंचसंग्रह गा. 39 पृष्ठ 325 (ज्ञानपीठ) पंचसंग्रह गा. 305, पृष्ठ 438-39, गा. 329 वही ग्रन्थ, जयधवल 10/116-117, धवल 15/289 पृ. 4-5, धवल 15/81 स. 97 आदि) - यह वचन सर्वागम-सम्मत है।