________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' परमेश्वराऽर्हत्-सिद्ध-साधु-श्रद्धाने समस्त-भूत-ग्रामाऽनुकम्पाऽऽचरणे च प्रवृत्तः शुभः उपयोगः। अर्थात् विशिष्ट क्षयोपशमदशा में रहनेवाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय रूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से, शुभ-उपराग का ग्रहण करने से जो उपयोग, परमेष्ठी की श्रद्धा में तथा सर्व जीव-दया में प्रवृत्त है, वह शुभोपयोग है। (प्रवचनसार गाथा 157 की तत्त्वप्रदीपिका टीका) इस टीका में भी यही भासित होता है। यहाँ क्षयोपशम' शब्द का उदय अर्थ कदापि नहीं होता / उदय से औदयिक भाव बनता है तथा क्षयोपशम से क्षायोपशमिक भाव बनता है। करणानुयोग में 'उदय' अर्थ में 'क्षयोपशम' शब्द नहीं आता है। किंच मिथ्यात्व गुणस्थान में दर्शनमोह का क्षयोपशम होता भी नहीं; क्योंकि वहाँ उदीयमान मिथ्यात्व-प्रकृति में सर्वघाति द्वि-स्थानिक, त्रि-स्थानिक व चतुःस्थानिक ही स्पर्धक होते हैं। कारण यह कि मिथ्यात्व की जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट सर्व प्रकार की उदीरणा सर्वघाति ही होती है। (जयधवल 11, पृष्ठ 37-38 तथा धवल 15/17) इसी तरह चारित्र-मोह-कर्म का भी मिथ्यादृष्टि के क्षयोपशम-भाव नहीं होता, क्योंकि जहाँ देशघाति-स्पर्धकों से रहित तथा मात्र सर्वघाति-स्पर्धक ही जिसके होते हैं - ऐसी अनन्तानुबन्धी आदि तीन चौकड़ियाँ जहाँ प्रतिक्षण उदित हैं, वहाँ क्षयोपशम कैसा? क्षयोपशम-भाव के लिए तो यह आवश्यक है कि उस विवक्षित कर्म के देशघाति-स्पर्धकों का तो उदय हो तथा सर्वघाति-स्पर्धकों का अनुदय हो। (यह नियम मिश्र-प्रकृति को छोड़कर सर्वत्र है।) परन्तु प्रथम गुणस्थान में तो मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी; जिनके कि सर्वघाति-स्पर्धक ही होते हैं, अतः इनकी उदीरणा व उदय सर्वघाति ही हैं। (जयधवला 11/30-38) तो फिर इनके उदय से क्षयोपशमभाव प्राप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः ‘क्षयोपशम-दशा-विश्रान्त-दर्शन-चारित्र-मोहनीय' (प्रवचनसार गाथा 157 की तत्त्वप्रदीपिका टीका) पद से चतुर्थ आदि गुणस्थान ही गृहीत होते हैं। वहीं का