________________ अष्टम चर्चा सम्यक्पात्र-अपात्र-कुपात्र चर्चा जब चित्त में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि मोक्ष व मोक्षमार्ग के आराधक कौन हैं ? पात्र जीव कौन हैं ? अपात्र कौन हैं ? कुपात्र कौन हैं ? आदि। बारसाणुवेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा), गाथा 17-18 प. पू. आ. श्रीमद् कुन्दकुन्ददेव ने यही बात कही है - उत्तम-पत्तं भणियं, समत्त-गुणेण संजुदो साहू। सम्मादिट्ठी सावय, मज्झिम-पत्तो त्ति विण्णेयो।। णिद्दिट्ठो जिण-समये, अविरद-सम्मो जहण्ण-पत्तोत्ति / सम्मत-रयण-रहिओ, अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो / / अर्थात् सम्यग्दर्शन से सहित साधु को उत्तम पात्र कहा है; सम्यग्दृष्टि श्रावक को मध्यम पात्र समझना चाहिए तथा जिनागम में अविरत सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा गया है और जो सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित हैं, वे अपात्र हैं; अतः पात्र की भली-भाँति परीक्षा करनी चाहिए। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक 171 इस सम्बन्ध में श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव ने भी कहा है - पात्रं त्रि-भेदमुक्तं, संयोगो मोक्ष-कारण-गुणानाम् / अविरत-सम्यग्दृष्टिः, विरताविरतश्च सकल-विरतश्च / / अर्थात् मोक्ष के कारणरूप सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप गुणों का संयोग जिसमें हो, ऐसा पात्र, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती श्रावक और सकलव्रतीमहाव्रती मुनिराज - इन तीन भेदरूप कहा है।