________________ 148 क्षयोपशम भाव चर्चा वस्तुतः प. पू. श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्यदेव के उत्तरवर्ती सभी आचार्य भगवन्तों ने उनका ही अनुसरण करते हुए अनेक विभिन्न ग्रन्थों की रचना की है, उनमें कहीं भी पूर्वापर-विरोध नहीं दिखायी देता है; किन्तु आज कतिपय जैनाभास/श्रमणाभास उन पूर्वाचार्यों के हार्द को - मर्म को सही रूप से हृदयंगम न कर सकने के कारण पूर्वापर-विरोध-सहित रचनाएँ कर रहे हैं, उपदेश दे रहे हैं - अहो ! हन्त! महाश्चर्य, जले वह्नि-समुद्भवः। आज से ढाई सौ वर्ष पूर्व आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने लगता है कि इस स्थिति का पूर्वाभास कर लिया था कि भविष्य में धार्मिक, सामाजिक स्थिति क्या होगी? और इसलिए उन्होंने अपनी सातिशय प्रज्ञा के बल से सद्गृहस्थ होते हुए भी लगभग उपलब्ध सर्व आगम-अध्यात्म ग्रन्थों के स्वाध्याय-चिन्तन-मनन के बल से उसके दोहन से प्राप्त जिनागम के सार को हृदयंगम कर 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' नामक एक ऐसी कालजयी रचना कर दी है कि जिसके आधार से इस पंचम काल के अन्त तक सच्चे मुक्ति के मार्ग की विरल, किन्तु अविच्छिन्न धारा बहती रहेगी। ___सम्यग्दृष्टि ज्ञानी, चाहे गृहस्थ हो या मुनि हो, उन सब की वाणी पूर्वापरविरोध-रहित ही होती है, क्योंकि वह स्वानुभूति-प्रसूत होती है, जिसे यह बात मान्य नहीं है, समझो, उसकी होनहार अभी अच्छी नहीं है। ___ सम्यग्ज्ञानियों का सदैव एकमत होता है, कदाचित् केवली-कथित करणानुयोग के कोई एकाध कथन में मत-भिन्नता हो सकती है, किन्तु अभिप्राय में रंचमात्र भूल नहीं होती। जबकि एक मिथ्याज्ञानी के स्वयं के कथनों में पूर्वापर-विरोध सहित अत्यन्त मत-भिन्नता पायी जाती है। ___ अतः इस दुःखद पंचम काल में श्रोता को वक्ता की पहिचान करना चाहिए, अन्यथा जैसे अनादि काल से धर्म के नाम पर यह जीव ठगाता आया है, वैसे ही इस दुर्लभ नर-पर्याय को भी यूँ ही तथाकथित धर्म के नाम पर खोकर चला जाएगा; तदर्थ स्वयं चारों अनुयोगों का स्वाध्याय आगम-निष्ठ होकर करना चाहिए, व्यक्ति-निष्ठ होकर नहीं। वस्तुतः आत्मज्ञानी को ही सच्चा वक्तापना शोभता है, क्योंकि अध्यात्म