________________ षष्ठम चर्चा : प्रवचनसार में शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग 143 श्रावक व मुनियों के आचरण से युक्त जैनों का अनुकम्पा से निरपेक्षतया उपकार करो। प्रवचनसार, गाथा 255 रागो पसत्थभूदो, वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं। णाणाभूमिगदाणिह, बीजाणिव सस्सकालम्हि / / अर्थात् जैसे, इस जगत् में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हुए बीज धान्यकाल में विपरीतरूप से फलते हैं, उसी प्रकार प्रशस्तभूत राग, वस्तुभेद (पात्रभेद) से विपरीतरूप से फलता है। अथ शुभोपयोगस्य कारणवैपरीत्यात् फलवैपरीत्यं साधयति) यथैकेषामपि बीजानां भूमिवैपरीत्यान्निष्पत्तिवैपरीत्यं, तथैकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रवैपरीत्यात्फ लवैपरीत्यं कारणविशेषात् कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात् / ____ अर्थात् (अब ऐसा सिद्ध करते हैं कि शुभोपयोग में कारण की विपरीतता से फल की विरीतता होती है।) जैसे, बीज, ज्यों के त्यों एक से होने पर भी भूमि की विपरीतता से फल-निष्पत्ति की विपरीतता होती है।(अर्थात् अच्छी भूमि में उसी बीज का अच्छा अन्न (फल) उत्पन्न होता है और खराब भूमि में वही खराब हो जाता है या उत्पन्न ही नहीं होता।) उसी प्रकार प्रशस्तरागस्वरूप शुभोपयोग, ज्यों का त्यों होने पर भी पात्र की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है, क्योंकि कारण के भेद से कार्य का भेद अवश्यंभावी (अनिवार्य) है। (तत्त्वप्रदीपिका) यथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभूमिविशेषेण तान्येव बीजानि भिन्नभिन्नफलं प्रयच्छन्ति, तथा स एव बीजस्थानीयशुभोपयोगो भूमिस्थानीयपात्रभूतवस्तुविशेषेण भिन्न-भिन्न फलं ददाति / तेन किं सिद्धम्? यदा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वकशुभोपयोगो भवति, तदा मुख्यवृत्या पुण्यबन्ध भवति, परम्परया निर्वाणं च, नो चेत्पुण्यबन्धमात्रमेव। अर्थात् जैसे जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट भूमि-भेद से, वे ही बीज भिन्न-भिन्न फल देते हैं; उसी प्रकार बीज-स्थानीय वही शुभोपयोग, भूमिस्थानीय पात्रभूत