________________ 140 क्षयोपशम भाव चर्चा अर्थात् अब परमागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वरूप भेदरत्नत्रय का युगपत् पना होने पर भी जो अभेदरत्नत्रयस्वरूप निर्विकल्प समाधिस्वरूप लीनता लक्षण आत्मज्ञान है, वही निश्चय से मुक्ति का कारण है; ऐसा प्रतिपादन करते हैं - ___ 'जो कर्म, अज्ञानी (बाल-तपादि से) लक्ष-कोटि भवों में नष्ट करता है, वे कर्म, तीन प्रकार से गुप्त ज्ञानी (त्रिगुप्तिधारक साधुपरमेष्ठी) उच्छ्वास-मात्र में नष्ट कर देता है।' ... इससे ज्ञात होता है कि परमागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वरूप भेदरत्नत्रय का सद्भाव होने पर भी, अभेद रत्नत्रयरूप स्वसंवेदन-ज्ञान की ही प्रधानता है। (तत्त्वप्रदीपिका) प्रवचनसार, गाथा 239 अथाऽऽत्मज्ञानशून्यस्य सर्वाऽऽगमज्ञान-तत्त्वार्थ श्रद्धान-संयतत्वानां यौगपद्यमप्यकिंचित्करमित्यनुशास्ति। (तत्त्वप्रदीपिका) अर्थात् अब ऐसा उपदेश करते हैं कि आत्मज्ञान-शून्य के सर्व आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथा संयतत्व का युगपत्पना भी अकिंचित्कर है अर्थात् वे मिल कर भी कुछ नहीं कर सकते। प्रवचनसार, गाथा 245 समणा सुद्धवजुत्ता, सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि / तेसु वि सुद्धवजुत्ता, अणासवा सासवा सेसा / / अर्थात् शास्त्र में कहा है कि श्रमण शुद्धोपयोगी होते हैं, तथा शुभोपयोगी भी श्रमण होते हैं; उनमें जो शुद्धोपयोगी हैं, वे निरास्रव हैं, शेष सास्रव हैं अर्थात् जो शुभोपयोगी हैं, वे आम्रव-सहित हैं। जो वास्तव में श्रामण्य-परिणति की प्रतिज्ञा करके भी कषाय-कण के जीवित (विद्यमान) होने से समस्त परद्रव्यों से निवृत्तिरूप से प्रवर्तमान, ऐसी जो सुविशुद्ध दर्शन-ज्ञान-स्वभाव आत्मतत्त्व में परिणतिरूप शुद्धोपयोग-भूमिका, उसमें आरोहण करने को असमर्थ हैं; वे (शुभोपयोगी) जीव, जो कि शुद्धोपयोग-भूमिका के उपकण्ठ निवास कर रहे हैं और कषाय ने जिनकी शक्ति कुण्ठित की है तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित (आतुर) मनवाले हैं, वे श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जा रहा है -