________________ षष्ठम चर्चा : प्रवचनसार में शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग 127 - ऐसा इसका अर्थ है; यही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है, अर्थात् शुद्ध-चैतन्य का प्रकाश करना - यह इसका अर्थ है। वही यथावस्थित आत्मगुण होने से साम्य है और साम्य दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के उदय से उत्पन्न होनेवाले समस्त मोह (मिथ्यात्व) और क्षोभ (राग-द्वेष) के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार रूप जीव का परिणाम है। प्रवचनसार गाथा 8 अभेदनयेन ..... धर्मेण परिणताऽऽत्मैव धर्मो मन्तव्य इति / तद्यथा - निजध्रुवशुद्धात्मपरिणतिरूपो निश्चयधर्मो भवति / पञ्चपरमेष्ठ्यादिभक्तिपरिणामरूपो व्यवहारधर्मस्तावदुच्यते / अर्थात् अभेदनय से ..... धर्मपर्याय से परिणत आत्मा को ही धर्म मानना चाहिए। वह इस प्रकार है - निजशुद्धात्म-परिणतिरूप निश्चयधर्म तथा पञ्चपरमेष्ठी आदि के प्रति भक्ति-परिणामरूप व्यवहारधर्म कहा गया है। (तात्पर्यवृत्ति) प्रवचनसार गाथा 11 धम्मेण परिणदप्पा, अप्पा जदि सुद्धसंपयोग जुदो। पावदि णिव्वाणसुहं, सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं / / अर्थात् धर्म से परिणतस्वरूपवाला आत्मा, यदि शुद्धोपयोग में युक्त हो तो मोक्ष-सुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोगवाला हो तो स्वर्ग-सुख को (बन्ध) को प्राप्त करता है। अतः शुद्धोपयोग उपादेयः, शुभोपयोगो हेयः। अर्थात् शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है। (तत्त्वप्रदीपिका) 'चारित्तं खलु धम्मो' इति वचनात् / तच्च चारित्रमपहतसंयमोपेक्षासंयमभेदेन सरागवीतरागभेदेन वा शुभोपयोगशुद्धोपयोगभेदेन च द्विधा भवति। तत्र यच्छुद्धसंप्रयोगशब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरागचारित्रं, तेन निर्वाणं लभते / निर्विकल्पसमाधिरूपशुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभोपयोगरूपसरागचारित्रेण परिणमति, तदा पूर्वामनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखविपरीतमाकुलत्वोत्पादकं स्वर्गसुखं लभते / पश्चात् परमसमाधिसामग्रीसद्भावे मोक्षं च लभते इति सूत्रार्थः।