________________ षष्ठम चर्चा श्री प्रवचनसार पर आधारित शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग की सम्यक् चर्चा परमपूज्य श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्यदेव विरचित परमागमों में प्रवचनसार' एक अद्वितीय ज्ञानचक्षु है, जिसमें आगम-अध्यात्म का अद्भुत सुमेल-सन्तुलन दर्शा कर, टीकाकार-द्वय प. पू. श्री अमृतचन्द्राचार्य एवं प. पू. श्री जयसेनाचार्य ने द्रव्यानुयोग-चरणानुयोग-करणानुयोग की सुमेल, सुसंगतता स्थापित कर, हमारे चित्त में उठनेवाले प्रश्नों का सहज ही समाधान कर दिया है। इसी से आत्मज्ञजन इस ग्रन्थ को 'दिव्यध्वनिसार' नाम से भी पुकारते हैं। वस्तुतः इसमें ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन-ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन-चरणानुयोगसूचकचूलिका - ये जो तीन महा अधिकार हैं, वे प्रकारान्तर से क्रमशः देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप को दर्शानेवाले अधिकार ही हैं। प्रथम 'ज्ञान-तत्त्व-प्रज्ञापन' में 12 गाथाओं तक मंगलाचरण एवं भूमिका के पश्चात् इस महा अधिकार को चार अवान्तर (उप/लघु) अधिकारों में विभक्त किया है - 13 से 20 गाथाओं तक शुद्धोपयोग अधिकार, 21 से 52 गाथाओं तक ज्ञान अधिकार, 53 से 68 गाथाओं तक आनन्द (सुख) अधिकार, और अन्त में 69 से 92 गाथाओं तक शुभ-परिणाम अधिकार है। द्वितीय 'ज्ञेय-तत्त्व-प्रज्ञापन', तीन अवान्तर अधिकारों में विभक्त है - 93 से 126 गाथाओं तक द्रव्य-सामान्य-प्रज्ञापन, 127 से 144 गाथाओं तक द्रव्य-विशेष-प्रज्ञापन, और 145 से 200 गाथाओं तक ज्ञान-ज्ञेय-विभागप्रज्ञापन नामक अधिकार हैं। तृतीय ‘चरणानुयोग-सूचक-चूलिका' भी चार अवान्तर अधिकारों में विभक्त है - 201 से 231 गाथाओं तक आचरण-प्रज्ञापन, 232 से 244 गाथाओं तक मोक्षमार्ग-प्रज्ञापन, 245 से 270 गाथाओं तक शुभोपयोगप्रज्ञापन एवं 271 से 275 गाथाओं तक पंचरत्न नामक अधिकार हैं।