________________ चतुर्थ चर्चा : क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन एवं चारित्र अर्थात् जो विवेकी जीव, भावपूर्वक अरहन्त को नमस्कार करता है, वह अतिशीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सोना, खाना, जाना, वापिस आना और शास्त्र का प्रारम्भ करना आदि क्रियाओं में अरहन्त-नमस्कार अवश्य करना चाहिए; किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से गुणधर भट्टारक का यह अभिप्राय है कि परमागम में उपयोग के अतिरिक्त अन्य सब क्रियाओं में अरहन्त-नमस्कार नियम से करना चाहिए, क्योंकि अरहन्त-नमस्कार किये बिना प्रारम्भ की हुई क्रिया से मंगल की उपलब्धि नहीं होती अर्थात् सोना, खाना आदि क्रियाएँ स्वयं मंगलरूप नहीं है; अतः उनमें मंगल का किया जाना आवश्यक है, किन्तु शास्त्र के प्रारम्भ में मंगल करने का नियम नहीं है, क्योंकि परमागम के उपयोग में स्वयं मंगलस्वरूप होने से उसमें मंगल फल की प्राप्ति अनायास हो जाती है। इसी अर्थ-विशेष का ज्ञान कराने के लिए गुणधर भट्टारक (महान आचार्य) ने ग्रन्थ के आदि में मंगल नहीं किया है। (8) प्रवचनसार, गाथा 9 यहाँ शुभ-अशुभ-शुद्ध - इन तीनरूप उपयोगों को चौदह गुणस्थानों में वर्गीकृत कर संक्षेप में समझाया गया है - मिथ्यात्व-सासादन-मिश्र-गुणस्थान-त्रये तारतम्येनाऽशुभोपयोगः, तदनन्तरमऽसंयतसम्यग्दृष्टि-देशविरत-प्रमत्तसंयत-गुणस्थान-त्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमऽप्रमत्तादि-क्षीणकषायाऽन्त-गुणस्थान-षट्केतारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्यऽयोगिजिन-गुणस्थानद्वये शुद्धोपयोग फलमिति भावार्थः। अर्थात् मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र - इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से (घटता हुआ) अशुभोपयोग, इसके बाद असंयत सम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत - इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से बढ़ता हुआ शुभोपयोग, इसके आगे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से क्षीणकषाय पर्यन्त गुणस्थानों में तारतम्य से (बढ़ता हुआ) शुद्धोपयोग, इसके बाद सयोगी जिन और अयोगी जिन; ये दो गुणस्थान शुद्धोपयोग के फल हैं - यह भावार्थ है। (तात्पर्यवृत्ति टीका) समीक्षा - चौदह गुणस्थानों के संक्षिप्त विभाजन में यहाँ टीका में तारतम्य