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________________ विराम स्पष्ट ही अपेक्षित है / परन्तु 'अनुगृहाण' के पीछे विराम का कोई स्थान नहीं / अत एव 'अनुगृहाण' के अन्तिम स्वर के पीछे आने वाले 'इमम्' शब्द के प्रथम स्वर 'इ' के साथ अवश्य सन्धि होती है। श्लोक के प्रथम और तृतीय चरणों के पीछे शिष्टों ने विराम नहीं माना, तो वहाँ सन्धि अवश्य होती है / बाण और सुबन्धु के गद्य से हमें पता चलता है कि वे किसी वाक्य के अन्तर्गत पदों में सदा ही सन्धि करते थे, चाहे वाक्य कितना भी लम्बा क्यों न हो / जब ये ग्रन्थकार विशेषणों की एक विस्तृत शृङ्खला बना देते हैं, और एक-एक विशेषण कई एक पदों अथवा उपमानपदों का समास होता है, तब इन विशेषणों के अन्त्य या प्रारम्भिक वर्षों में सन्धि नहीं करते / वास्तव में इतने विस्तृत विशेषणों के बाद विराम होना स्वाभाविक है। जब कभी इस प्रकार विशेषण प्रयुक्त किये जाते हैं, चाहे वे विस्तृत न भी हों, फिर भी प्रत्येक विशेषण को प्राधान्य देने के लिये विराम की अपेक्षा होती ही है। इसके अतिरिक्त जब कभी इन ग्रन्थकर्ताओं ने कुछ एक वस्तुओं की गणना की है, वे नियमित रूप से प्रत्येक वस्तु के नाम के बाद भी इस विचार से विराम करते हैं कि इन वस्तुओं के नाम अविकृत* रूप में रहें और संहिता से उच्चारण के द्वारा व्यतिकीर्ण न हो जाएँ / उदाहरणार्थ- 'कादम्बरो' का वह सन्दर्भ पढ़ना चाहिए, जिसमें चन्द्रापीड द्वारा सीखी गई भिन्न 2 विद्याओं का वर्णन है। सारांश यह कि 'रामो ग्रामं गच्छति, हरिर्मोदते मोदकेन, स्वभाव एष परोपकारिणाम् / तच्छ्र त्वापि सा धयं न मुमोच। अस्मिंस्तडागे प्रचुराण्यभिनवानि नलिनानि दृश्यन्ते' इत्यादि वाक्यों में विराम का कोई अवसर न होने से एक पद की दूसरे पद के साथ सन्धि न करना अक्षम्य है। उपर्युक्त वाक्य सन्धि के बिना इस प्रकार रह जाते हैं-रामः / ग्रामम् / गच्छति / हरिः। मोदते मोदकेन / स्वभावः / एव / एषः / परोपकारिणाम् / तद् / श्रुत्वा / अपि सा धैर्यम् / न मुमोच / अस्मिन् / तडागे प्रचुरारिप / अभिनवानि नलिनानि दृश्यन्ते / इन वाक्यों * इसी भाव से प्रेरित होकर प्राचीन आर्य, अवन्ति पद से परे 'प्रोम्' शब्द के आने पर सन्धि (ौकार) नहीं करते थे, जिसके लिये भगवान् सूत्रकार ने 'प्रोमाङोश्च' सूत्र का निर्माण किया / ब्रह्म निर्विकार है, प्रोम् (प्रणव) उसका वाचक है। आर्यों की यह इच्छा रही कि जिस प्रकार वाच्य ब्रह्म अविकारी है उसी प्रकार उसका वाचक भी अविकृत रहे।
SR No.032858
Book TitleAnuvad Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharudev Shastri
PublisherMotilal Banarsidass Pvt Ltd
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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