________________ निपात है। इसका प्रयोग उन शब्दों के अनन्तर किया जाता है जिन्हें यह परस्पर मिलाता है। अथवा परस्पर जोड़े गये शब्दों में से केवल अन्तिम शब्द के साथ ही इसका प्रयोग किया जाता है। जैसे-*रामश्च लक्ष्मणश्च अथवा-- *रामो लक्ष्मणश्च / / वाक्य में 'वा' की स्थिति भी 'च' के समान ही है। जैसे--'नरः कुञ्जरो वा' अथवा 'नरो वा कुंजरो वा' व्यवहारानुसार है। हम 'कृष्णं चेन्नस्यसि स्वगं यास्यसि' के स्थान में 'चेत् कृष्णं नस्यसि स्वर्ग यास्यसि' ऐसा नहीं कह सकते। जहाँ 'नमस्ते' शब्द प्रयोग बिलकुल ठीक है वहां 'ते नमः' अत्यन्त वा, ह, अह, और एव' के साथ वाक्यों में प्रयोग नहीं कर सकते / एवं जहाँ 'तव च मम च मध्ये व्यवहार के सर्वथा अनुकूल है, वहाँ 'ते च मे च मध्ये' परन्तु 'त एव' नहीं कह सकते / 'किल' और 'जातु वाक्य के प्रारम्भ में कदा. चित् ही आते हैं। एवं 'अर्हति किल कितव उपद्रवम्' तथा “न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति" ये प्रयोग ठीक माने जाते है / लिङ्ग और वचन-हिन्दी शब्दों के संस्कृत पर्यायों के लिङ्ग का अनुमान छात्रों को हिन्दी वाग्व्यवहार से नहीं करना चाहिए। संस्कृत में लिङ्ग केवल मात्र अभिधान-कोष तथा वृद्ध व्यवहार से जाना जाता है। व्याकरण के नियमों का लिंग निर्धारण में कुछ बहुत उपयोग नहीं। अभिधेय वस्तु का स्त्रीत्व वा पुंस्त्व, तथा चेतनता वा जड़ता का शब्द के लिङ्ग के साथ कोई सम्बन्ध नहीं। ___ * वस्तुतः प्रत्येक समुच्चीयमान पदार्थ के साथ समुच्चय वाचक 'च' का प्रयोग न्यायप्राप्त है, पर वक्ता आलस्यवश केवल अन्त में ही इसका प्रयोग करता है, अन्यत्र प्रायः उपेक्षा करता है / पर निश्चित ही 'च' की आवृत्ति का प्रकार बढ़िया है। 1 'जातु' कभी कभी वाक्य के आदि में भी आता हैं, इसमें अष्टाध्यायी का 'जात्वपूर्वम् ( 8 / 1147 ) सत्र ज्ञापक है।