________________ 104] नित्य नियम पूजा गीता छन्द चसुकोटि छप्पन लाख ऊपर, सहस सत्याणव मानिये / 'शतच्यार :गिनले इक्यासी, भवनजिनवर जानिये / / तिहुँ लोक भीतर सासते सुर असुर नर पूजा करे। तिन भवनको हम अर्घ लेके पूति हैं जगदुख हरें / 4 / ॐ ह्रीं त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि षट्पंचाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहस्त्र चतुःशतैकाशीति अकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्यो पूर्णाऱ्या नि० // 4 // अथ जयमाला 'दोहा-अब वरणों जयमालिका, सुनों भव्य चित लाय / जिनमन्दिर तिहुँ लोयके देहूँ सकल दरशाय / / पद्धरि छन्द जयअमलअनादि अनंतजान, अनिमितजु अकीर्तमअचल थान जय अजय अखंड अरूपधार, षट् द्रव्य नही दी लगार / / जय निराकार अविकार होय, राजत अनंत परदेश सोय। जैशुद्ध सगुण अवगाहपाय, दशदिशामाहिं इहविधि लखाय / यह भेद अलोकाकाश जान तामध्य लोक नभ तीन मान। स्वमेव बन्यौ अविचल अनंत, अविनाशिअनादि जु कहतसंत पुरुषाअकार ठाडो निहार, कटि हाथ धारि द्वै पग पसार / दच्छिन उत्तरदिशि सर्व ठौर, राजू जुसात भाख्यो निचोर।। जय पूर्व अपरदिश घाटबाधि, सुन कथन कहूं ताकोजु साधि लखि श्वभ्रतले राजू जु सात, मधिलोक एक राजू रहात / फिर ब्रह्मसुरग राजू जु पांच, भू सिद्ध एक राजू जु सांच / /