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________________ 66 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास परिवर्तन शीलता को लिए हुए बदला करता है। इसी आधार पर जैन पुराणों का प्रथम लक्षण है - उत्सर्पिणी एंव अवसर्पिणी युग में कालकम के अनुसार लोक व्यवस्था में परिवर्तन / जैन पुराणों का यह लक्षण हिन्दू पुराणों के प्रथम एंव द्वितीय लक्षण-सर्ग, प्रतिसर्ग से मिलता जुलता है। हिन्दू पुराणों के इन लक्षणों में उत्सर्पिणी एंव अवसर्पिणी युग के समान ही इस जगत की उत्पत्ति एंव प्रलय का उल्लेख पाया जाता है। उत्सर्पिणी युग में मनुष्यों के बल, आयु एंव शरीर का प्रमाण बढ़ता है और अवसर्पिणी युग में बल आयु एंव शरीर का प्रमाण कमशः घटता जाता है। प्रत्येक युग का काल दस कोड़ा-कोड़ी सागर बतलाया गया है। इन दोनों ही कालों के छ: छ: भेद बतलाये गये हैं जो कालचक के परिभ्रमण से कृष्ण और शुक्ल पक्ष की तरह घूमा करते हैं। जैन पुराणों का तीसरा लक्षण है - वंश। आदिपुराण में कर्मभूमि की स्थापना कर चार-हरि, अकम्पन, काश्यप एंव सोमप्रभ राजाओं को प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव द्वारा महामाण्डलिक राजा बनाये जाने की बात ज्ञात होती है। सोमप्रभ एंव हरि कमशः कुरुवंश एंव हरिवंश के शिरोमणि कहलाये इसी प्रकार अकम्पन नाथवंश एंव काश्यप उग्रवंश के राजा हए / भागवत पुराण ब्रहमा द्वारा राजाओं की सृष्टि का उल्लेख करता है / जैन परम्परा में भोगभूमि के अन्तर्गत न कोई शासक था और न कोई प्रजा। ऋषभदेव ने ही कर्मभूमि में पृथक् पृथक् राजाओं को नियुक्त किया। जैन पुराणों का चौथा लक्षण है - मनुओं अथवा कुलकरों के कार्यो एंव उनकी ऊँचाई लम्बाई इत्यादि का उल्लेख | जैन पुराणों में चौदह कुलकरों की गणना की गयी है | इन कुलकरों की पौराणिक काल गणना अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं। कुलकरों ने प्रजा को जीवन का पथ प्रदर्शन कराया अतः एवं ये मनु कहलाए१७ एक कुलकर से दूसरे कुलकर के बीच का अन्तर मन्वन्तर कहलाता है कई करोड़ वर्षों का एक मन्वन्तर माना गया है। जैन पुराण में राजाओं के वंश वर्णन को “वंशानुचरित" कहा जाता है। हरिवंश पुराण में कुरु, हरि, नाथ एंव उग्रवंश के राजाओं का वर्णन है। इनके अतिरिक्त जैन पुराणों के आख्यानों को भी उनका लक्षण बतलाया जा सकता है। जैन पुराणों में लोक, देश, नगर, राजा, तीर्थ, दान, तप, गति और फल का वर्णन आवश्यक बतलाया गया है। लोक का नाम कहना तथा लम्बाई चौडाई बतलाना एंव उससे सम्बन्ध रखने वाली अन्य घटनाओं का उल्लेख लोकाख्यान कहलाता है। अधोलोक, मध्यलोक और उर्ध्व लोक का आकार क्रमशः वेत्रासन के समान नीचे विस्तृत और ऊपर सकरा, झल्लरी के समान सब ओर फैला हुआ तथा मृदंग के समान बीच में
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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