________________ जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास 10/16-36 / 47. व्य०भा० 3/245-54 पृ 52, 2/267-8, 5/73-74, पृ० 17, नि०सू० 6/1-77, नि०सू०भा० 2166-2286 48. आ०सू० 1/212 पृ० 252 46. पि०नि० 474 50. बृह०क०भा० 1/3014 51. बृह०क०भा० 1/2755-87 52. व्य०भा०वृ० 1/60-61 पृ० 76-77 53. बृह०क०भा० 4/4654-55 54. वरं प्रवेष्टुं ज्वलिंत हुताशनं, न चापि भग्स्नं चिरसंचितं व्रतं। / वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणों, न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् / / वृह०क०भा० 4/4646 की चूर्णी 55. वृह०क०भा० 1/2600 की टीका 56. वृह क०भा० 1/2664-68 57. नि०चू० 16/5248 की चूर्णी 58. बृह०क०भा० 4/4647-54, नि०भा०पी० 367-8,6/2242-44 भ०आ०गाथा 625 में भी प्रायश्चित से असंयम सेवन का नाश बताया गया है। 56. प्रा०सा०का इ०पृ० 218 60. आ०चू०पृ० 364 61. आ०चू० 2.1 पृ 330. वृह क०भा०वृ० 1/1460 62. ए०ऑव हि०इ० भूमिका 63. स्था०सू० 64. आ०चू०पृ० 213, त्रिश, पु०च० 1/6/214-15, उ०टी० 8 पृ० 136 वृह क०भा० 4/5153, क०सू० 1/13 64. आ०चू०पृ० 315 65. व्य०भा० 7/313, पृ०५५, अ, आ०चू०पृ० 115 66. आ०नि० 481, आ०चू०पृ० 264 67. आ०चू०पृ० 312, आ०नि० 506 68. जी०सू०३१ 281, इ०मा०पृ० 142-48 66. उ०सू० अध्याय 18, गाथा 35 की भावविजय टीका, श्लोक 67, व०हि०पृ० 304-305, ज्ञातृ तृ०धक०८ पृ० 65 आ०नि०३३५, टीका पृ 385 70. वि०सू०७ पृ० 51, ज्ञातृ ध०क०२, पृ० 84-1, 85.2 / 71. उ०सू०३६/२०५, ज्ञातृध०क०८ पृ 16 / / 72-73. पि०नि०४४१, ज्ञातृ ध०क०८ पृ०१३८ अ, इ०मा०पृ० 224 / 74. स०सू०२४, कल्पसूत्र 6-7, आ०नि० 366 75. स०सू० 12, आ०नि० 374, स्था० सू० 10/718 . 76. आ०नि० 41 77. वा०हि० पृ० 240-245. उ०टी० 18, पृ० २५५-अ 78. उ०सू० 22