________________ उपसंहार 233 होना, धर्म अर्थ काम का अविरोध सेवन, दयालुता, नीति, पराक्रम आदि श्रेष्ठ गुणों का होना आवश्यक था। राज्य का हस्तान्तरण करते समय प्रायः राजकुमार को शिक्षा दी जाती है। प्रायः राज्य का विस्तृत स्वरुप प्राप्त होता है। देश, समय, शत्रुवल, आत्मबल एंव शरीरबल को प्रधानता देते हुए साम, दाम, दण्ड, भेद से किस समय किस नीति को अपनाना चाहिए, की मीमांसा की गयी है। राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा का समुचित पालन करना है। प्रजारंजन व प्रजा, पालन आवश्यक. कर्तव्य बतलाया गया है। राज्य की मूल शक्ति आचार पराकम, सैन्य, एंव कोश की शक्ति में निहित बतायी गयी हैं। राजा अन्तरंग शत्रुओं को जीतने वाला एंव त्रिवर्ग का प्रवर्तक है। मनुष्यों की रक्षा के कारण नृप, पृथ्वी की रक्षा के कारण भूप एंव प्रजा को अनुरंजित करने के कारण राजा कहा गया है। राजा के अनेक भेद-कुलकर, चक्रवर्ती, विद्याधर, महामाण्डलिक, मंडलाधिप, सामन्त, द्वीपपति, भूधर आदि वर्णित किये गये हैं। चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण राजाओं के जो लक्षण जैन ग्रन्थों में पाये जाते हैं वे अन्य परम्परा के लक्षणों के अपेक्षाकृत कुछ वैचित्र्य रखते हैं। चक्रवर्ती भरत को भरत आदि छः खण्डों का अधिपति कहा गया है उसके चौदह रत्न, नवनिधि एंव दस प्रकार के भोगों का विस्तृत वर्णन किया है। न्याय एंव पराकम राजाओं की विजय के आधार थे। शिक्षा प्राप्ति के बाद एंव राज्याभिषेक आदि अन्य अवसरों पर माता, पिता, गुरु एंव आचार्यो द्वारा शिक्षा देने का वर्णन किया गया है। मंत्रिपरिषद एंव अन्य अधिकारियों एंव उनके गुणों पर प्रकाश डाला गया है। राज्य के सप्तागों में कोष एंव दुर्ग का वर्णन, सेना के भेद, दूत व्यवस्था, न्याय व्यवस्था आदि का उल्लेख किया गया है। प्रभुता, उत्साह एंव मंत्र शक्ति द्वारा राजा प्रजा के कष्टों को दूर करने का प्रयत्न करते थे। पुराणों में लोकों, द्वीपों तथा क्षेत्रों के उल्लेख के साथ-साथ नगरों पर्वतों एंव नदियों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है जो भूगोल विषयक ज्ञान को स्पष्ट करता है। साथ ही साथ विभिन्न राजाओं के राज्य सीमाओं, राज्य के स्वरुप एंव व्यापारिक ... केन्द्रों आदि का वर्णन भूगोल की जानकारी हेतु महत्वपूर्ण है। सभी प्रकार के जीवन में अर्थ को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। असि, मषि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य अर्थोपार्जन के साधन थे। जल एंव स्थल मार्गो से व्यापार होने एंव व्यापार में आने वाले कष्टों का वर्णन किया गया है। कथाओं से व्यापारिक स्थानों, वस्तुओं एंव वहाँ के निवासियों के रहन-सहन, वेशभूषा, एंव स्वभाव व्यवहार का उल्लेख प्राप्त होता है। __ जैन साहित्य की उपरोक्त विधाओं के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि विवेच्यकाल में जैनधर्म ने अन्य धर्मो के तत्वों को अपने में आत्मसात् कर लिया थां धर्म को सर्वोपरि रुप देने एवं धर्म की रक्षा के लिए जैनधर्म द्वारा हिन्दू धर्म के मूलभूत