________________ अध्याय -6 उपसंहार जैन इतिहास के अन्तर्गत सर्वप्रथम आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में “इति इह आसीत्” कहकर इतिहास की व्याख्या प्रस्तुत की है। इतिहास की पूर्वयुगीन मान्यताओं ने जैन इतिहास के स्वरुप को प्रभावित किया है। पूर्व वृतान्तों को उनके वास्तविक रुप में प्रस्तुत करना जैन इतिहास की विशेषता है। इतिहास लेखन का प्रारम्भ महावीर के निर्वाण के पश्चात् प्रारम्भ होता है। जैन इतिहास अपने प्रारम्भिक चरण में धार्मिक एंव दार्शनिक सिद्धान्तों का मात्र विश्लेषण प्रस्तुत करने वाला है। पूर्व मध्ययुग में जैनधर्म की समन्वयवादी प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एंव अन्याय पक्षों के प्रस्तुतीकरण में हुआ है। __ जैन इतिहास में कर्मभूमि से पहले भोगभूमि व्यवस्था थी। सर्वप्रथम आदि तीर्थकर ऋषभदेव ने कर्मभूमि की स्थापना की एंव प्रजा को असि, मषि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य, विद्या इन षट्कर्मो की शिक्षा दी। जैन इतिहास का प्रस्तुतीकरण इसी कम से हुआ है। ऋषभदेव के पश्चात् जैनधर्म में तेइस तीर्थकर हुए। अन्तिम चार तीर्थकरों की ऐतिहासिकता जैनेतर परम्पराओं में भी स्वीकृत है। महावीर ने धर्म का मूलाधार अहिंसा को बनाकर पार्श्वनाथ के चातुर्यामिक उपदेश को पंचयामी बनाया। जैन इतिहास में महावीर के उपदेशों के संकलन जो सर्वप्रथम गणधर द्वारा द्वादशांग आगम बारह अंग एंव चौदह पूर्वो के रुप में किये गये, इनमें महावीर एंव महावीर से पूर्व के धार्मिक, दार्शनिक नैतिक विचारों के साथ ही ज्योतिष, आयुर्वेद, आदि शास्त्रों का समावेश किया गया। कालान्तर में अंगों एंव पूर्वो का लोप हो जाने के पश्चात् जैन साहित्य के पुर्ननिर्माण के आन्दोलन का सूत्रपात ई०पू० 160 में कलिंग चक्रवर्ती सम्राट खारवेल ने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर एक मुनि सम्मेलन बुलाकर किया गया। प्रथम शताब्दी से पॉचवी शताब्दी तक के साहित्य में दार्शनिक चिन्तन, लोकोत्त अध्यात्म, एंव लोकोन्नायक आचार विचार पर अधिक ध्यान दिया गया और विभिन्न आचार्यों द्वारा विभिन्न ग्रन्थों की रचनाएँ की गयीं। छठी शताब्दी ई० वी० के बाद का जैनसाहित्य हिन्दू परम्परा के कथानक एंव आख्यानों से प्रभावित जान पड़ता है। विभिन्न राज्यवंशों के प्रश्रय से जैन साहित्य