________________ 206 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास अष्टमांगलिक चिन्ह-पूर्णघट, श्री वत्स, संपुट, पुष्पपात्र, पुष्पपडलग, स्वस्तिक, मत्स्ययुग्म, भद्रासन एंव धर्मचक पूजा के प्रतीक थे। जैनधर्म की मान्य ये प्रतीक पूजा हिन्दू धर्म में मान्य प्रतीक पूजा से प्रभावित है जिसमें विभिन्न प्रतीकों - (यथा-कमल को लक्ष्मी, सिंह को दुर्गा, श्रीवत्स को विष्णु इत्यादि) को विभिन्न देवताओं से सम्बन्धित किया गया है और उस प्रतीक में उसी देवता का ध्यानकर पूजा की जाती है। सर्वप्रथम कुषाण कालीन मथुरा कला ने तीर्थकर मूर्ति को जन्म दिया। इसी समय बौद्ध धर्म में बुद्ध की एंव हिन्दू धर्म में विष्णु, दुर्गा, शिव, सूर्य, कुबेर आदि ब्राह्मण धर्म की उपास्यमूर्तियॉ बहुतायत से बनने लगी। इन जैन मूर्तियों पर गान्धार कला का पूर्णरुपेण प्रभाव दृष्टिगत होता है। हिन्दू मूर्तियों की भॉति ही ये मूर्तियाँ आध्यात्मिक है एंव बाह्य संसार के प्रति उदासीनता का भाव अभिव्यक्त करती हैं | जैन कला वैष्णव धर्म से अनुप्राणित शुंगकालीन कला की भॉति ही मानव जीवन के सभी पहलुओं पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। एक ओर वीतराग उपदेश देते हुए उपाध्याय परमेष्ठी को देखते हैं तो दूसरी और परस्त्री लम्पट को पिटते हुए। पशु पक्षियों, लाक्षावृक्षों एंव प्रतीकों का अंकन भी हिन्दू धर्म का प्रभाव है। तीर्थकरों की मूर्तियों में विशेषकर आदिनाथ, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, महावीर एंव शान्तिनाथ की प्रतिमाएं उपलब्ध होती हैं। ये मूर्तियाँ पद्मासन एंव कायोत्सर्ग मुद्रा में प्राप्त हैं। इनके मस्तक मुण्डित या छोटे घुघराले बालों से युक्त है। कान कन्धे तक लटकने वाले नहीं, महापुरुष के बोधक चिन्हों में हथेलियों पर धर्मचक एवं पैरों के तलुवों पर त्रिरल एंव धर्मचक दोनों बने रहते हैं। कुछ प्रतिमाओं में हाथ की ऊँगलियों के पौर पर भी श्री वत्सादि मंगलचिन्ह बने हैं जो बौद्ध एंव हिन्दू धर्म के प्रभाव स्वरुप है। आदिनाथ के कंधों पर लहराती बालों की लटों एंव पार्श्वनाथ तीर्थकर की मूर्तियों में सर्प फणावलि का अंकन शिव के साथ नागों की फणावलि एंव विष्णु की शेषशैय्या का ही प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। ये फणावलि पृष्ठभाग में तकिया के रुप में दिखलायी गयी है२२ / देवगढ़ से दो ऐसी पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ मिली हैं जिनके आसन के रुप में सर्प की कुण्डली भी दिखायी गयी है। इसे शेषशायी विष्णु का अनुकरण माना गया है। __ शेषशायी विष्णु के अनुकरण में तीर्थकरों की माता को एक आकर्षक मुद्रा में लेटे हुए दिखलाया गया है जिसकी सेवा में विभिन्न देवियाँ संलग्न हैं। माता के गौरव एंव स्नेह के प्रतीक 24 तीर्थकंरों का भी अंकन इसमें प्रदर्शित है२३ / शिव की जटाएं लम्बी होने के साथ ही जुडेनुमा आकार में बंधी होती है लेकिन तीर्थकंरों की जटाएं इतनी लम्बी एंव विस्तृत दिखलायी गयी हैं कि वे जुड़ेनुमा आकार में बंधी होने पर भी कन्धों एंव पीठ पर फैली रहती है कभी कभी ये पिण्डलियों तक लम्बी