________________ 184 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास लेखों से इस गण के दो उपभेदों - कौरुर गच्छ एंव चित्रकूटान्वय की जानकारी होती है। कौरुर गच्छ चालुक्य सम्राट - आहवमल्ल के सामन्त वाजिकुल के नागदेव के सन् 1007 के लेख से इसकी पत्नी द्वारा सूरसीगण - कौरुरगच्छ के अर्हणन्दि पण्डित को दान देने से होती है३१४ | चित्रकूटान्वय ___लेखों से इस अन्वय के श्री नन्दिपंडित की आचार्य परम्परा ज्ञात होती है१५ | श्री नन्दि एंव गुरुवन्धु भास्करनन्दि के समाधिमरण के स्मारक रुप में लेख लिखाने की जानकारी होती है३१६ | चालुक्य राजा जगदेकमल्ल के सन् 1148 के एक लेख से चित्रकूटान्वय की एक अन्य आचार्य परम्परा की जानकारी होती है जिनको जिनालय के लिए भूमिदान की गयी थी१७ | 5 काणुरगण / काणुर किसी स्थान विशेष को सूचित करता हे सम्भवतः क्षेत्रीय आधार पर इस गण का विकास हुआ हो। गंगवंश के राजा रक्कसगंग तथा नन्नियगंग के 10 वीं शताब्दी के एक लेख से काणूरगण के चन्द्रसिद्धान्त देव को ग्राम की कुछ भूमि दान देने के साथ ही काणूरगण की आचार्य परम्परा विस्तृत रुप से प्राप्त होती है१८ | लेखों से इस गण के तीन गच्छों की जानकारी होती है। तिन्त्रिणी गच्छ होयसल राजा विष्णुवर्धन के महाप्रधानदण्डनायक द्वारा इस गच्छ के मेघचन्द्रदेव को भूमिदान की जानकारी होती है३१६ | इस गच्छ का उल्लेख मैसूर से प्राप्त पार्श्वनाथ मूर्ति के पीठ के लेख पर भी प्राप्त होता है३२० | लेखों से तिन्त्रिणीक गच्छ की आचार्य परम्परा ज्ञात होती है३२१ / तिन्त्रिणीय गच्छ के मुनिचन्द्र एंव उनके शिष्य कल्याणी के चालुक्यों के अधीन सामन्तों के गुरु थे, वे यन्त्र तन्त्र मंत्र में अति प्रवीण थे, ये मण्डलाचार्य कहलाते थे तथा इस पद पर 40 वर्ष तक रहे२२ / इसके साथ ही बन्दणिकापुर के अधिपति होने की जानकारी प्राप्त होती है३२३ | मेषपाषाण गच्छ गंगवंशीय राजाओं के लेखों से इस गच्छ के आचार्य को भूमिदान देने 24