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________________ चरितकाव्य 131 "देशव्रत” नामक गुणव्रत कहा गया है। अधार्मिक चिन्तन एंव उपदेश, दण्ड विष, मारना बन्धन आदि कुकृत्यों का त्याग, जिन्हें कि व्यक्ति स्वयं अपने ऊपर नहीं करना / चाहता, “अनर्थदण्ड” नामक गुणव्रत कहा गया है२२० / चरितकाव्यों से इन गुणव्रतों के लक्षण एवं इनके पालन से होने वाले लाभों की जानकारी होती है / शिक्षाव्रत चरितकाव्यों से गृहस्थ धर्म के अन्तर्गत चार शिक्षाव्रतों का पालन आवश्यक होने की जानकारी होती है२२३ / सामायिक शिक्षाव्रत प्राणीमात्र के प्रति समताभाव को उदय करना, हिंसा आत एंव रौद्र का त्याग करना चरितकाव्यों में सामायिक शिक्षाव्रत कहा गया है२४ / महावीर से पूर्व तीर्थकरों द्वारा इस व्रत पर अधिक बल दिया गया / व्यवहार में जैन इसे सन्ध्या कहते प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत इसके अन्तर्गत गृह व्यपारादि को छोड़कर उपवास विधि से देवपूजन, जपशास्त्र, स्वाध्याय आदि धार्मिक क्रियाओं को करना आवश्यक बताया गया है२२५ | भोगोपभोग परिमाणवत इसमें धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन प्रत्येक पक्ष की कुछ विशेष तिथियों - अष्टमी, चतुर्दशी को करने एंव खाद्य पदार्थो एंव वस्त्राभूषण शयनासन में से किन्हीं विशेष प्रकार की वस्तुओं का परित्याग बताया गया है२२६ | अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत इसमें मुनि, साधु एंव अन्य व्यक्तियों को सत्कारपूर्वक आहार, औषधि देना गृहस्थ के लिए अत्यावश्यक बताया गया है२२० / गृहस्थ के कर्तव्य गृहस्थाश्रमी को देश, द्रव्य, आगम एंव पात्र के अनुसार दान देने को निर्देशित किया गया है। चरितकाव्यों में दाता का स्वरुप एंव दान के भेदों के साथ२२८ ही दान के फलों को स्पष्ट करते हुए अभयदान की श्रेष्ठता का उल्लेख किया गया है२२६ / चारों वर्णो को आहारदान के योग्य बतलाया गया है क्योंकि सभी शरीर पालन
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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