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________________ चरितकाव्य 126 धार्मिक जैनधर्म की निवृत्ति परक एंव आचारमूलक प्रवृत्तियों की जानकारी चरितकाव्यों से प्राप्त होती है। बरांगचरित एंव यशस्तिलक चम्पू सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जैनधर्म का विकास तत्कालीन समाज में व्याप्त धार्मिक कियाकाण्डों के परिणाम स्वरुप हुआ। चरितकाव्यों से ज्ञात होता है कि तीर्थकर भिक्षु एंव धर्माचार्य भ्रमण करते हुए अपने उपदेशों से धर्म के आचार विचारों इत्यादि सिद्धान्तों से जनसामान्य को लाभान्वित करते थे६५ | ये धर्माचार्य उद्यान में रुकते थे 6 राजाओं द्वारा तत्कालोचित वेश में पुरजन परिजन अंगरक्षकों एंव अन्तःपुर के साथ धर्माचार्यों से मिलने एंव धर्मोपदेश सुनने जाने के उल्लेख मिलते हैं१६० / ये राजाओं को समयानुकूल उपदेश देते एंव पूर्वभवों एंव भविष्य से अवगत कराते थे | धर्मोपदेश से प्रभावित होकर विरक्त भाव से परिभ्रमण करते हुए धर्मदेशना करके राजाओं द्वारा मोक्ष प्राप्त करने एंव अन्तःपुर की स्त्रियों द्वारा भी जिन दीक्षा ग्रहण कर कर्मबन्धन दूर करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं।६८ | ये उपदेश इतने अधिक प्रभावित होते थे कि हिंसारत राजा भी अहिंसा की ओर प्रवृत्त हो जाते एंव जिन दीक्षा ग्रहण करते थे / चरितकाव्यों से ज्ञात होता है कि जैनधर्म को राज्याश्रय प्राप्त था एंव राजाओं द्वारा जिनगृह एंव जिनप्रतिमा बनवाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं२०० / मन्दिरों की सुरक्षा एंव व्यय राजकीय कोष से होता था। राजाओं द्वारा जिन प्रतिमाओं की पूजा करने एंव दर्शनार्थ जाने की जानकारी होती है२०१ | श्रावक एंव मुनिधर्म चरितकाव्यों से ज्ञात होता है कि जैनधर्म दो रुपों अनागार एंव सागार में विभाजित हैं.०२ / सागार धर्म का सम्बन्ध श्रावक धर्म से एंव अनागार धर्म का सम्बन्ध मुनिधर्म से है। गृहस्थ धर्म के प्राणियों के लिए सम्यक् ज्ञान एंव सम्यक् दर्शन से युक्त पंच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों एंव चार शिक्षा व्रतों का पालन करना आवश्यक था०३ / बंरागचरित से राजकुमार वंराग द्वारा भगवान नेमिनाथ के शिष्य वरदत्त मुनि से उपदेश ग्रहण कर अणुव्रतों का आचरण करने की जानकारी होती है२०४ / पाँच अणुव्रतों के अन्तर्गत अहिंसा, अमृषा, अस्तेय, एंव अपरिग्रह को सम्मिलित किया गया है२०६ | चरितकाव्यों से ज्ञात होता है कि श्रावक अणुव्रतों के पालन से कल्याण को प्राप्त करते हैं२०७ / चरितकाव्यों में इन अणुव्रतों के साथ मद, मास, मद्य एंव पाँच ठडम्बरफलों का त्याग आवश्यक बतलाया गया है२०८ | इन अणुव्रतों का पालन मुनियों को अति कट्टरता से करना होता था इसी कारण इन्हें महाव्रत कहा गया है०६ / मुनि एंव श्रावक धर्म का मूल सम्यक् दर्शन ही है१० /
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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