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________________ पुराण 61 उल्लेख किया गया है | राग, द्वेष, काम, कोध आदि दोषों से रहित एंव वयरत्नों से युक्त प्राणी ही जैनधर्म में साधु-आचार्य, उपाध्याय, सिद्ध तथा परमेष्ठी कहा गया है। जैन परम्परा में पूजा के चार प्रकार बताये गये हैं - 1, नित्यपूजा 2, चतुर्मुख पूजा 3, कल्पद्रुम एंव अष्टान्हिका पूजा२७० / ग्राम, भूमि आदि का दान, मन्दिर, निर्माण उनकी व्यवस्था एंव गन्ध, पुष्प अक्षत से जिनेन्द्र की प्रतिदिन पूजा करना नित्यपूजा कही जाती है। राजाओं द्वारा किये जाने वाले महायज्ञ चतुर्मुख पूजा, एंव चक्रवर्तियों द्वारा सब प्राणियों की इच्छाओं को पूर्ण करने को कल्पद्रुम पूजा कहा गया है२७१ / अष्टान्हिका पूजा सभी साधारण व्यक्तियों द्वारा की जा सकती है। जिनसेन की तरह आचार्य रविषेण ने भी जिनपूजा का उल्लेख किया है७२ / पुराणों में पूजन में प्रयुक्त होने वाली आठ वस्तुओं का उल्लेख किया गया है जिसके कारण इसे अष्टविधि पूजा कहा गया है। इन्द्र द्वारा जिनेन्द्रदेव की अष्टविधि पूजा करने के उल्लेख मिलते हैं.७३ / पूजा की ये आठ वस्तुयें जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप एंव फल निवृत्तिमूलक जैनधर्म के सिद्धान्तों के अनुरुप अपना अपना एक विशेष सांकेतिक अर्थ रखते हैं। जैन परम्परा में इन आठों वस्तुओं को पुनः एक साथ मिलाकर चढ़ाने को अर्घ्य कहा जाता है। प्रत्येक वस्तु से पूजन करते समय अलग-अलग मंत्रों का उच्चारण करने एंव मंत्रों द्वारा कार्य की सिद्धि होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं२७४ | दान धार्मिक प्रवृत्तियों की वृद्धि के साथ ही धार्मिक कृत्यों में भी वृद्धि हुयी। जैनधर्म के अन्तर्गत दान को धर्म का विशेष अंग माना गया है। जैन भिक्षुओं को गृहस्थों से प्राप्त शुद्ध भोजन को करने का विधान बतलाया गया है। आदिपुराण में दान के महत्व का उल्लेख किया गया है७५ | अभय आहार, औषध एंव शास्त्र दान ये दान के चार प्रकार कहे गये हैं। अभयदान का पालन मुनियों एंव श्रावकों के लिए अत्यावश्यक बतलाया गया है क्योंकि इसी के द्वारा अहिंसा महाव्रत का पालन सम्भव है। राजाओं द्वारा अपने राज्य में विशिष्ट उत्सवों एंव पर्वो पर हिंसा निषेध करने एंव प्रजा को उसका पालन करने के आदेश देने की जानकारी होती है२७६ | जैनधर्मानुयायी राजाओं एंव व्यक्तियों द्वारा जैन भिक्षु भिक्षुणियों के लिए आहार एंव आवासादि की व्यवस्था करने के उल्लेख मिलते हैं। इसके साथ ही जैन भिक्षुओं को एक जनपद से दूसरे जनपद में धूमते हुए अनेकानेक कष्टों एंव बीमारियों का सामना करना होता था। जैन भिक्षु स्वाध्याय भी करते अतएंव उन्हें औषधि एंव शास्त्र दान देने का विधान बतलाया गया है। इन दानों में अभयदान जैन धर्म की
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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