________________ 268 ज्ञानानन्द श्रावकाचार बहुत हैं / वस्तु का ऐसा अनादि-निधन स्वभाव स्वयमेव है उसे मिटाने में कोई भी समर्थ नहीं है / इसप्रकार तीर्थंकर देव ही सर्वोत्कृष्ट हैं, वे एक क्षेत्र में एक ही पाये जाते हैं तथा कुदेवों के समूह हैं वे वर्तमान काल में सर्वत्र अनगिनत पाये जाते हैं / किस-किस कुदेव को पूजें ? वे परस्पर रागी-द्वेषी हैं, एक कहता है मुझे पूजो, दूसरा कहता है मुझे पूजो / वे स्वयं ही पूजने वाले से खाने की वस्तुयें मांगते हैं, कहते हैं कि मैं बहुत दिनों से भूखा हूं / इसप्रकार जब वे ही भूखे हैं तो उनकी पूजा करने वालों को उत्कृष्ट वस्तुयें कहां से देने में समर्थ होंगे ? जैसे कोई क्षुधा आदि से पीडित रंक पुरुष घर-घर से अन्न के कण अथवा रोटी के टुकडे अथवा झूठन आदि मांगता फिरता हो तथा कोई अज्ञानी पुरुष उससे ही उत्कृष्ट धन आदि सामग्री मांगे, उस (धन आदि सामग्री) के लिये उसकी पूजा करे, सेवा करे तो क्या वह हास्य का पात्र नहीं होगा ? होगा ही होगा। ___अतः श्री गुरु कहते हैं - हे भाई ! तू मोह के वश होकर आंखों देखी वस्तु को झूठी मत मान। जीव इस भ्रम बुद्धि के कारण ही अनादि काल से संसार में थाली में रखे मूंगों की भांति रुलते हैं / जैसे किसी पुरुष को पहले ही दाह ज्वर का तीव्र रोग लगा था तथा फिर कोई अज्ञानी वैद्य तीव्र उष्णता का ही उपचार करे, तो वह पुरुष कैसे शांति प्राप्त कर पावेगा ? उसी प्रकार यह जीव अनादि से ही मोह से दग्ध हो रहा है। यह मोह की वासना जो इस जीव को बिना किसी उपदेश के स्वयमेव ही बनी हुई है, जिससे तो आकुल व्याकुल महादुःखी था ही, पुनः ऊपर से गृहीत मिथ्यात्व आदि का सेवन करता रहे तो उससे इसको होने वाले दु:ख का क्या पूछना ? ___ अग्रहीत मिथ्यात्व की अपेक्षा गृहीत मिथ्यात्व का फल अनन्त गुणा बुरा है / ऐसे गृहीत मिथ्यात्व को द्रव्यलिंगी मुनियों तक ने छोडा है तथा उनके अगृहीत-मिथ्यात्व का अनन्तवां भाग जितना-सा हल्का अगृहीत