________________ द्वादशम अधिकार : निर्ग्रन्थ गुरु का स्वरूप आगे निर्ग्रन्थ गुरु का स्वरूप कहते हैं / जिनने राज्य लक्ष्मी को छोडकर मोक्ष प्राप्ति के लिये दीक्षा धारण की है तथा जिनको अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियां प्राप्त हुई हैं। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्ययज्ञान तथा महा दुर्धर तप से संयुक्त हैं। नि:कषाय हैं तथा अठाईस गुणों में अतिचार भी नहीं लगाते हैं, ईर्या समिति आदि का पालन करते हुये साढे तीन हाथ धरती शोधते हुये विहार करते हैं। भाव यह है कि किसी भी जीव की विराधना नहीं करना चाहते / भाषा समिति का पालन करते हुये हितमित प्रिय वचन बोलते हैं, उनके वचनों से किसी जीव को दु:ख नहीं पहुंचता है / अत: सर्व जीवों के बीच दयालु रहते इस जगत में शोभित होते हैं। ___ ऐसे सर्वोत्कृष्ट देव, गुरु, धर्म को छोडकर विचक्षण पुरुष हैं वे कुदेव आदि को कैसे पूजें ? उनकी (कुदेव आदि की) जगत में प्रत्यक्ष हीनता देखी जाती है / इस जगत में जो-जो राग-द्वेष आदि अवगुण हैं, वे सारे के सारे कुदेव आदि में पाये जाते हैं, तब उनका सेवन करने से जीव का उद्धार कैसे हो सकता है ? उन ही का सेवन करने से जीव का उद्धार हो तो जीव का बुरा किसका सेवन करने से होगा ? जैसे यदि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, आरंभ-परिग्रह आदि जो महापाप हैं, उनसे ही स्वर्ग आदि मिल जावें तो नरक आदि के दुःख किससे मिलेंगे, यह तो देखते नहीं (उसका विचार करते नहीं)। आगे कहते हैं - देखो, इस जगत में उत्कृष्ट वस्तुयें तो थोडी हैं, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है / जैसे हीरे, माणिक, पन्ना आदि तो जगत में थोडे हैं पर कंकर-पत्थर बहुत हैं, इसीप्रकार धर्मात्मा पुरुष थोडे हैं पापी पुरुष