________________ 259 मोक्ष सुख का वर्णन उसप्रकार का तो मैं हूं नहीं, मैं तो साक्षात अमूर्तिक अखण्ड प्रदेशों को धारण करता हूं तथा उन प्रदेशों में ज्ञान गुण को लिये हुये हूँ / इसप्रकार तीन प्रकार के गुणों से संयुक्त मेरे स्वरूप को मैं भलीप्रकार जानता तथा अनुभव करता हूं। तीन गुणों की प्रतीति :- कैसा अनुभव करता हूं ? इन तीन गुणों की मुझे प्रतीति है, वही कहता हूं - कोई मेरे पास आकर झूठ ही इसप्रकार कहे कि तू चैतन्य रूप नहीं है तथा परिणमन गुण भी तुझमें नहीं है ऐसा अमुक ग्रन्थ में कहा है, तब भी मैं उससे कहूंगा - रे दुर्बुद्धि ! रे बुद्धि रहित ! तुझ मोह के ठगे हुये को कुछ भी सुध नहीं है / तेरी बुद्धि ठगी गयी है / वह पुरुष पुन: कहे - मैं क्या करूं ? ऐसा ही अमुक ग्रन्थ में कहा है, ऐसा मुझसे कहे तब भी मैं प्रत्यक्ष चैतन्य वस्तु, पर को देखनेजानने वाला उसके कहे को कैसे मानूं ? तब मैं उससे कहूंगा - शास्त्र में ऐसा मिथ्या कथन नहीं हो सकता। जैसे सूर्य कभी शीतल नहीं हुआ, आगे भी नहीं होगा, यह नियम है / फिर भी वह पुनः कहे - आज सूर्य शीतल ही उदित हुआ है / वह मैं कैसे मानूं, कभी भी नहीं मान सकता। तू मुझे सर्वज्ञ का नाम लेकर कह रहा है कि मैं चैतन्य नहीं हूं, मुझे परिणति भी नहीं है, यह मैं कदापि नहीं मान सकता। क्यों नहीं मान सकता ? इन दो गुणों की तो मुझे आज्ञा से भी प्रतीति हुई है तथा अनुभव से भी प्रतीति है तथा तीसरे प्रशस्त (सही-सच्चे) गुण का भी मुझे आज्ञा से तथा एकदेश अनुभव से भी प्रमाण है / कैसे ? मैं यह जानता हूं कि सर्वज्ञदेव का वचन झूठा नहीं हो सकता - इसलिये तो आज्ञा से प्रमाण है तथा मैं यह जानता हूं कि मुझे मेरा अमूर्तिक आकार दिखता नहीं है, वह भी आज्ञा से प्रमाण है, यह अनुभव से प्रमाणित कैसे हो सकता है ? परन्तु मैं अनुमान (तर्क से विचारता) करता हूं कि प्रदेशों के आश्रय