________________ 258 ज्ञानानन्द श्रावकाचार वही जानपना है, ऐसा नि:संदेह अनुभव में आवे। एक तो यह गुण है दूसरा (गुण यह) है कि राग-द्वेष रूप व्याकुल होकर परिणम रहा है वह ही मैं हूं, कर्म का निमित्त पाकर कषाय रूप परिणाम हुये हैं तथा कर्म का निमित्त कमजोर होता जाता है तब परिणाम भी शान्त रूप परिणमते जाते हैं / जैसे जल का स्वभाव तो शीतल तथा निर्मल है, वह जल अग्नि का निमित्त पाकर उष्णरूप परिणमता है तथा रज का निमित्त पाकर वही जल गंदा परिणमता है / उसीप्रकार इस आत्मा का ज्ञान गुण ज्ञानावरण आदि कर्मो का निमित्त पाकर घाता जाता है तथा कषायों का निमित्त पाकर निराकुलता गुण घाता जाता है / ___ ज्यों-ज्यों ज्ञानावरण आदि कर्मों का निमित्त कमजोर पडता है त्योंत्यों ज्ञान का उद्योत बढता है / ज्यों-ज्यों कषायों का निमित्त मंद (कमजोर) पडता जाता है त्यों-त्यों परिणाम निराकुल होते जाते हैं / यह स्वभाव जिनने प्रत्यक्ष जाना तथा अनुभव किया है वे ही सम्यग्दृष्टि हैं निज स्वरूप के भोक्ता हैं। तीसरा गुण यह भी जानना कि मैं असंख्यात प्रदेशी अमूर्तिक आकार वाला हूँ / जैसे आकाश अमूर्तिक है, उसीप्रकार मैं भी अमूर्तिक हूँ। परन्तु आकाश तो जड है तथा मैं चेतन हूँ / आकाश और किस प्रकार का है ? काटने से कटता नहीं है, तोडने से टूटता नहीं है, पकड में आता नहीं है, रोकने से रुकता नहीं है, छेदने से छिदता नहीं है, भेदने से भिदता नहीं है, गलाने पर गलता नहीं है, जलाने पर जलता नहीं है। इसप्रकार किसी भी रूप से उसका नाश नहीं होता है। उसीप्रकार मेरे भी असंख्यात प्रदेशों का नाश नहीं हो सकता है / ___ मैं असंख्यात प्रदेशी प्रत्यक्ष वस्तु हूँ। मेरे ज्ञानगुण तथा परिणति गुण प्रदेशों के आश्रय हैं, यदि प्रदेश न हों तो ये ज्ञान गुण तथा परिणति गुण किस गुण के आश्रय रहें ? प्रदेशों के बिना गुण की नास्ति होगी तब स्वभाव की भी नास्ति होगी / जैसे आकाश कुसुम कुछ वस्तु नहीं है