________________ समाधिमरण का स्वरूप 247 ऐसा विचारता है - यदि कदाचित मेरे स्वभाव में राग परिणति का अणु मात्र भी प्रवेश हुआ तो मुझे वरण करने के सम्मुख हुई मोक्षलक्ष्मी वापस लौट जावेगी, अत: मैं राग परिणति को दूर से ही छोडता हूं / ऐसा विचार करते हुये काल पूरा करता है। उसके परिणामों में निराकुल आनन्द का रस बरसता है / उस शांत रस से वह तृप्त है / उसे आत्मिक सुख के अतिरिक्त किसी बात की इच्छा नहीं है, पूर्व में न भोगे ऐसे एक अतीन्द्रिय सुख की ही वांछा है कि ऐसा स्वाधीन सुख को ही भोगता रहूं / यद्यपि इस समय साधर्मियों का संयोग है तथापि उनका संयोग भी पराधीन तथा आकुलता सहित भासित होता है तथा यह जानता है कि निश्चित रूप से विचारते तो ये साधर्मी भी सुख का कारण नहीं हैं। मेरा सुख तो मेरे पास ही है अतः स्वाधीन है। इसप्रकार आनन्दमय स्थित होता हुआ शांत परिणामों सहित समाधिमरण करता है तथा समाधिमरण के फल में इन्द्र आदि का वैभव प्राप्त करता है। वहां से चय होने पर राजा महाराजा होता है / कुछ समय तक राज्य कर, वैभव भोग कर अर्हत (भगवती) दीक्षा धारण करता है एवं क्षपक श्रेणी आरोहण कर चार घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान लक्ष्मी प्राप्त करता है / वह केवलज्ञान लक्ष्मी कैसी है ? जिसमें तीन काल सम्बन्धी समस्त लोकालोक के चर-अचर पदार्थ एक समय में आ झलकते हैं। उसके सुख की महिमा वचनों में कहने में नहीं आती। इति समाधिमरण वर्णन सम्पूर्णम्