________________ 226 ज्ञानानन्द श्रावकाचार (12) बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा :- अब बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा का चितवन करता है / देखो भाई ! संसार में एकेन्द्रिय पर्याय से दो इन्द्रिय पर्याय पाना दुर्लभ है / दो इन्द्रिय से तीन इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय से चार इन्द्रिय, इससे असैनी पंचेन्द्रिय, इससे भी सैनी पंचेन्द्रिय पर्याय तथा उसमें भी मनुष्य पर्याय फिर मनुष्य पर्याय में भी धर्म की संगति, धर्म का संयोग दुर्लभ से दुर्लभतर है, ऐसा जानना / इससे भी सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति महादुर्लभ है। __इसप्रकार वह देव भावना भाता हुआ आयुबल पूर्ण होने पर मनुष्य पर्याय में उच्च पद पर आ आसीन होता है / धर्म ही संसार में सार है / धर्म के समान अन्य कोई हितकारी नहीं है, मित्र नहीं है / अत: शीघ्र ही पाप कार्यों को छोडो, उसमें विलम्ब मत करो। अपने हित के इच्छुक पुरुष धर्म की ही इच्छा रखें, धर्म की ही शरण ग्रहण करो / बहुत कहने से क्या ? इसप्रकार श्री गुरु ने प्रश्न का उत्तर दिया, उपदेश दिया, आशीर्वाद दिया। इन शुभ भावों को ज्ञाता (सम्यग्दृष्टि) मात्र जानता ही है / इसमें भूल-चूक हो गयी हो तो शास्त्रों के अनुसार जान लें, तथा बुद्धिमान व्यक्ति इसे शुद्ध कर लें। मेरा दोष ग्रहण न करना। इति स्वर्ग सुखों का वर्णन पूर्ण हुआ।