________________ स्वर्ग का वर्णन 225 (7) आस्रव अनुप्रेक्षा :- अब आस्रव अनुप्रेक्षा का चितवन करता है। देखो भाई ! मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय तथा योगों के द्वारा कर्मो का द्रव्यास्रव करके (यह जीव) संसार समुद्र में डूब रहा है / किसप्रकार डूब रहा है। जैसे जहाज के पेंदे में छिद्र हो जाने पर जहाज समुद्र में डूबता है वैसे ही डूब रहा है। __(8) संवर अनुप्रेक्षा :- अब संवर अनुप्रेक्षा का चितवन करता है। देखो भाई ! तप, संयम, धर्म ध्यान के द्वारा संवर होता है, जैसे जहाज के छिद्र को बन्द कर देने पर जल का जहाज में आना रुक जाता है वैसे ही तप, संयम, धर्मध्यान आदि के द्वारा कर्मों का आना बन्द हो जाता है / (9) निर्जरा अनुप्रेक्षा :- अब निर्जरा अनुप्रेक्षा का चिंतवन करता है / देखो भाई ! आत्मा का चितवन करने से पूर्व में बंधे कर्म नाश को प्राप्त होते हैं। जैसे जहाज में भर गये जल को निकाल देने पर जहाज पार हो जाता है, उसीप्रकार आत्मा को कर्मों रूपी बोझ से हल्का कर दिये जाने पर आत्मा भी मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। (10) लोक अनुप्रेक्षा :- अब लोक अनुप्रेक्षा का चिंतवन करता है / देखो भाई ! ये तीनों लोक छह द्रव्यों से ही बने हैं, अन्य कोई इनका कर्ता नहीं है / इन छह द्रव्यों ने ही मिलकर इन तीनों लोकों को उत्पन्न किया है। (11) धर्म अनुप्रेक्षा :- अब धर्म अनुप्रेक्षा का चिंतवन करता है। देखो भाई ! धर्म ही संसार में सार है, धर्म ही अपना मित्र है, धर्म ही अपना स्वजन है, धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई हित करने वाला नहीं है / अत: धर्म का ही साधन करो करूं, अब धर्म को ही आराधो। त्रिलोक में जितने भी उत्कृष्ट सुख हैं वे धर्म के प्रसाद से ही प्राप्त होते हैं, धर्म से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है / धर्म ही मेरा निज लक्षण है, धर्म ही मेरा निज स्वभाव है / अत: यह ही मुझे ग्रहण करना है अन्य कुछ नहीं ग्रहण करना, अन्य से मुझे क्या ?