________________ 220 ज्ञानानन्द श्रावकाचार कैसे हैं ? मानों चमरों के बहाने नमस्कार ही करते हैं, ऐसे शोभित होता है। कितने ही देव छत्र लिये हैं, कितने ही देव अनेक आयुध लिये दरवाजे पर स्थित हैं / कुछ देव अभ्यन्तर सभा में विराजमान हैं, कुछ मध्य की सभा में विराजमान हैं, कुछ बाहर की सभा में स्थित हैं; कुछ देव दर्शक ही होते हैं। देखो उस विमान की शोभा, देखो देव-देवांगनाओं की शोभा, देखो उत्कृष्ट राग, नृत्य, वाद्य यंत्रों की ध्वनि, उत्कृष्ट सुगन्ध आ रही है / सब शोभायें आ एकत्रित हुई है / कैसे एकत्रित हुईं हैं ? कहीं तो देव मिलकर गायन कर रहे हैं, कहीं क्रीडा कर रहे हैं, कहीं देवांगनायें आ एकत्रित हुईं हैं, मानो सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह, तारों की पंक्तियां एकत्रित होकर दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रही हों। कुछ देवांगनायें रत्नों के चूर्ण से मांगलिक स्वस्तिक पूर रही हैं, कुछ देवांगनायें मीठे स्वर में गा रही हैं, कुछ मंगल गाती हैं मानो मंगल के बहाने मध्यलोक से धर्मात्मा पुरुषों को बुला रही हैं / कुछ देवांगनायें देव के पास हाथ जोडे खडी हैं, कुछ हाथ जोडे देव की स्तुति कर रही हैं, कोई देवांगना देव के तेज को देखकर भयभीत हो रही हैं। कोई थरथर कांप रही हैं तथा हाथ जोडकर मधुर-मधुर धीरे-धीरे बोलती जाती हैं / कुछ देवांगनायें कह रही हैं - हे प्रभो ! हे नाथ ! हे दयामूर्ति ! क्रीडा करने चलो, हमें तृप्त करो। स्वर्ग और कैसा है ? कहीं तो धूप से सुगंध फैल रही है, कहीं पन्ने के सदृश्य हरियाली शोभित है, कहीं पुष्प वाटिका से शोभा हो रही है, कहीं भंवरों की हुंकार शोभित है / कहीं चन्द्रकांत शिला से शोभा है, कहीं कांच के सदृश्य निर्मल शिला भूमि शोभित है, मानों जल की नदी ही है, जिसको देखकर ऐसी शंका होती है कि कहीं इसमें डूब न जावें / कहीं रत्नों के सदृश्य हरी शिलाभूमि शोभित है, कहीं माणिक्य जैसी लाल, स्वर्ण जैसी पीली भूमि तथा शिलायें शोभित हैं / कहीं तेल से बनाये गये काले काजल सदृश्य अथवा बदली की घटा के समान भूमि शोभित है,