________________ सम्यग्चारित्र 183 (निर्णय) कर धारण करते हैं अथवा आपकी आज्ञा शिरोधार्य करते हैं। आपके चरणों के अतिरिक्त अन्य को नमन नहीं करते हैं। आपके अतिरिक्त अन्य का ध्यान नहीं करते हैं। आपके चरण पूजते हैं, आपके चरणों में अर्घ अर्पण करते हैं, आपकी महिमा गाते हैं,आपके चरण कमलों की रज अथवा गंधोदक मस्तक अथवा नाभि के ऊपर के उत्तम अंगों पर लगाते हैं / आपके सम्मुख खडे होकर हाथ जोड कर नमस्कार करते हैं। आपके ऊपर चमर ढोलते हैं, छत्र चढाते हैं, वे ही पुरुष धन्य हैं / उनकी महिमा इन्द्र आदि देव भी गाते हैं / वे कृतकृत्य हैं, वे ही पवित्र हैं, उन्होंने ही मनुष्य भव का लाभ लिया है, जन्म सफल किया है, भव समुद्र को तिलांजलि दी है। हे जिनेन्द्र देव, हे कल्याण पुंज, हे त्रिलोक तिलक ! अनन्त महिमावंत, परम भट्टारक, केवलज्ञान-केवलदर्शन रूप युगल नेत्रों के धारक, सर्वज्ञ वीतराग आप जयवंत वर्ते / धन्य है मेरी पर्याय जिस पर्याय में आप जैसे अद्वितीयं पदार्थ को पाया / आपकी अद्भुत महिमा किस से कहें,आप ही माता, आप ही पिता, आप ही बंधु, आप ही मित्र, आप ही परम उपकारी, आप ही छह काय का रक्षक, आप ही भव समुद्र में डूबते प्राणियों के आधार हैं / अन्य कोई तीन काल में भी आधार नहीं है / आप ही आवागमन रहित करने में समर्थ हैं, मोह पर्वत को चकनाचूर करने के लिये वज्रायुध हैं। घातिया कर्मो को चकनाचूर करने में आप ही अनन्तबली हैं। ___ हे भगवन ! आपने दोनों हाथ क्या पसार रखे हैं, भव्य जीवों को संसार समुद्र में से निकालने के लिये हस्तावलंबन ही दिया है / हे परमेश्वर, हे परम ज्योति, हे चिद्रूप मूर्ति ! आनन्दमय अनन्त चतुष्टय से मंडित, अनन्त गुणों से पूर्ण, वीतराग मूर्ति, आनन्द रस से आल्हादित, महामनोज्ञ, अद्वैत, अकृत्रिम, अनादि निधन, त्रिलोक पूज्य आप कैसे शोभित हैं ? उसका अवलोकन करते नेत्र और मन तृप्त नहीं होते हैं।