________________ 158 ज्ञानानन्द श्रावकाचार (8) संवर भावना :- यह जीव आस्रव रूपी छिद्र को बंद करने का उपाय नहीं जानता, उसे संवर भावना का स्वरूप दिखाया तथा संवर के सत्तावन (57) कारण क्या-क्या हैं, यह बताया है। दसलक्षण धर्म दस (10), बारह तप (12), बाईस परिषह (22), तेरह प्रकार चारित्र (13) - इसप्रकार आस्रव को बंद करने के सत्तासन उपाय बताये। (9) निर्जरा भावना :- इस जीव ने पूर्व भवों से कर्मो का बंध कर रखा है उनकी निर्जरा (छुडाने) का उपाय बताते हुये उसे निर्जरा भावना का स्वरूप दिखाया। चिद्रूप आत्मा के ध्यान रूपी परम तप का स्वरूप बताया / (10) लोक भावना :- संसार में मोह कर्म के उदय से संसारी जीव को मिथ्या भ्रम लग रहा है / कुछ व्यक्ति तो संसार का कर्ता ईश्वर को मानते हैं, कई नास्तिक हैं, कुछ शून्य है (कुछ नहीं है) ऐसा मानते हैं। कुछ वासुकि (नागराज) के आधार पर इस लोक को टिका मानते हैं। अनेक प्रकार के भ्रम रूपी मोह अंधकार के कारण जीव भ्रम रहा है, उसका भ्रम दूर करने के लिये लोक भावना का स्वरूप दिखाया / मोह भ्रम को जिनवाणी रूपी किरण से दूर किया है / तीन लोक के कर्ता षट-द्रव्य हैं, इन षटद्रव्यों के समुदाय का नाम लोक है तथा जहां षट-द्रव्य नहीं हैं, केवल आकाश ही है उसको अलोक कहते हैं / कोई एक पदार्थ इस लोक का कर्ता नहीं है / यह लोक अनादि निधन, अकृत्रिम, अविनाशी, शाश्वत, स्वयं सिद्ध है। ___ (11) धर्म भावना :- यह जीव अधर्म में लगा है, अधर्म करते तृप्त नहीं होता है तथा अधर्म करने का फल बुरा होता है, बहुत क्लेष पाता है / इसप्रकार अधर्म करते अनादि (अनन्त) काल व्यतीत हो चुका है परन्तु इसे कभी धर्म बुद्धि नहीं हुई / इसलिये अधर्म छुडाने के लिये धर्म भावना का स्वरूप दिखाया तथा सब कुछ असार दिखाया है / धर्म के बिना इस