________________ सम्यग्चारित्र 157 (4) एकत्व भावना :- यह जीव कुटुम्ब आदि पुत्र-कलत्र (स्त्री), धन-धान्य, शरीर आदि को अपना मानता है, उसे एकत्व भावना द्वारा यह बताते हैं कि ये कोई भी जीव का नहीं है, जीव अनादि से अकेला ही है। नरक जाता है तो अकेला। तिर्यंच गति में जाता है तो अकेला, देवगति में गया तो अकेला, मनुष्य गति में आया तो अकेला, केवल (अपने किये) पुण्य-पाप का साथ है अन्य कोई इसके साथ नहीं आता जाता, इसलिये जीव सदा अकेला ही है, ऐसा बताकर कुटुम्ब परिवार आदि का ममत्व छुडाते हैं। (5) अन्यत्व भावना :- यह जीव शरीर को एवं अपने को एक मान रहा है, उसे अन्यत्व भावना द्वारा जीव तथा शरीर को भिन्न-भिन्न दिखाते हैं / जीव के द्रव्य-गुण-पर्याय अलग हैं, पुद्गल का द्रव्य-गुण-पर्याय उनसे भिन्न हैं, इत्यादि अनेक प्रकार से जीव तथा शरीर अदि को भिन्न-भिन्न दिखाकर निज स्वरूप की प्रतीति कराते हैं / (6) अशुचि भावना :- यह जीव शरीर को पवित्र मानता है तथा पवित्र मानकर इसमें बहुत आसक्त होता है / इसकी इस आसक्ति छुडाने के लिये अशुचि भावना के द्वारा शरीर में हड्डियां, मांस, रुधिर, चमडी, नसें, जाल तथा वात-पित्त, कफ, मल-मूत्र आदि सात धातु एवं सात उपधातु मय शरीर का पिंड दिखाकर शरीर से उदासीन करते हैं। अपना चिद्रूप, महापवित्र, शुचि, निर्मल, परमज्ञान तथा सुख का पुंज, अनन्त महिमा का भंडार है अविनाशी, अखंड, केवल कल्लोल, दैदिप्यमान, नि:कषाय, शान्त मूर्ति, सबको प्यारा, सिद्ध स्वरूप, देवाधिदेव जैसा अद्वितीय, तीन लोक द्वारा पूज्य निज स्वरूप दिखाकर उसमें ममत्व कराया है। (7) आस्रव भावना :- यह जीव सत्तावन (57) प्रकार के आस्रवों से पुण्य-पाप के जल में डूबा है, उसे आस्रव भावना का स्वरूप दिखाकर आस्रवों से भयभीत किया है /