________________ 12 ज्ञानानन्द श्रावकाचार ___ मेरा स्वभाव तो एक निराकुल, वाधा रहित, अतीन्द्रिय, अनुपम, स्वरस पीने का है सो मुझे प्राप्त होवे / कैसे प्राप्त हो? जैसे समुद्र में मग्न हुआ मच्छ बाहर निकलना नहीं चाहता है और बाहर निकलने में असमर्थ होता है, वैसे ही मैं ज्ञान-समुद्र में डूबकर फिर निकलना नहीं चाहता हूँ। एक ज्ञान रस को ही पिया करूँ। आत्मिक रस के बिना, अन्य किसी में रस नहीं है। सारे जग की सामग्री चेतन रस के बिना उसी प्रकार फीकी है, जैसे नमक के बिना अलोनी रोटी फीकी होती है। ग्रन्थ-निर्माण का प्रयोजन :- ग्रन्थकार के लिये रचना तो निमित्त मात्र है। यथार्थ में वे अपने से जुड़े हैं, अपने चित्त को एकाग्र कर अपने उपयोग को, अपने में लगाने का पुरुषार्थ किया है। परमात्मा का स्मरण करते हुए, वे अपनी पहचान करते हैं / परमात्म देव कैसे हैं? जिनके स्वभाव से ज्ञान अमृत झर रहा है और स्व-संवेदन से जिसमें, आनन्द रस की धारा उछल रही है / वह रस-धार उछल कर अपने स्वभाव में ऐसी गर्क हो जाती है, जैसे शक्कर कीडली जल में गल जाती है / इसलिए रचनाकार ज्ञानानन्दकी प्राप्ति के लिये ही इस श्रावकाचार की रचना करते हैं। उनके ही शब्दों में - “ज्ञानानन्द की प्राप्ति के अर्थ और प्रयोजन नाहीं।" ___आगै करता (कर्ता) आपणा स्वरूप कौ प्रगट करे है वा आपणा अभिप्राय जणावै है / सो कैसा हूँ मैं? ज्ञान ज्योति करि प्रगट भया हूँ, तातै ज्ञान ही नै चाहूँ हूँ। ज्ञान छै, सो म्हारा निज स्वरूप छ / सोई ज्ञान-अनुभव-करि, मेरे ज्ञान ही की प्राप्ति होहु / मैं तो एक चैतन्य स्वरूप ता करि उत्पन्न भया, ऐसा जो शांतिक रस ताकै पीवा * उद्यम किया है, ग्रन्थ बनावा का अभिप्राय नाहीं। ग्रन्थ तौ बड़ा-बड़ा पण्डिता नै घना ही बनाया है, मेरी बुद्धि कांई? पुनः उस विर्षे बुद्धि की मंदता करि, अर्थ विशेष भासता नाही, अर कषाय गल्या बिना, आत्मीक रस उपजै नाही, आत्मीक रस उपज्या बिना, निराकुलित सुख ताको भोग कैसे होय? तातै ग्रन्थ का मिस, चित्त एकाग्र करिवा का उद्यम किया।" इसप्रकार मुख्य प्रयोजन निज आत्मा का अनुभव करना ही है / यथार्थ में स्व-स्वरूप के सन्मुख व्यक्ति को ज्ञान के सिवाय कुछ नहीं सूझता है, अतः