________________ प्रस्तावना रचना के निर्देशन प्रस्तुत किए हैं। यथार्थ में उनकी शैली सरल होने पर भी गरिमा युक्त है। उदाहरण के लिए, हिन्दी-अनुवाद प्रस्तुत है - “सो यह कार्य तो बड़ा है और हम योग्य नहीं, ऐसा हम भी जानते हैं, परन्तु “अर्थी दोषं न पश्यति” / अर्थी पुरुष है वह शुभाशुभ कार्य का विचार नहीं करता, अपना हित ही चाहता है / इसलिए मैं निज स्वरूप-अनुभवन का अत्यन्त लोभी हूँ। इस कारण मुझे और कुछ सूझता नहीं है। मुझे तो एक ज्ञान ही ज्ञान सूझता है। ज्ञान के भोग के बिना और से क्या है? इसलिए मैं अन्य सभी कार्य छोड़कर ज्ञान ही की आराधना करता हूँ ज्ञान ही की सेवा करता हूँ तथा ज्ञान ही का अर्चन करता हूँ और ज्ञान ही की शरण में रहना चाहता हूँ।" ज्ञानानन्द का अभिप्राय :- इस ग्रन्थ का पूरा नाम “ज्ञानानन्दनिर्भरनिजरस श्रावकाचार" है। स्वरस का ही दूसरा नाम ज्ञानानन्द है। स्व माने अपना और अपना माने आत्मा का / आत्मा का रस ज्ञानानन्द या शान्तिक है। उसमें किसी प्रकार की आकुलता नहीं है, वह निराकुल सुख है.। उसकी प्राप्ति स्व-संवेदनगम्य ज्ञानानुभव से ही हो सकती है, अन्य कोई उपाय नहीं है। ज्ञान का अनुभव कहिये या निज स्वरूप की अनुभूति कहिये, एक ही बात है। निज स्वरूप का ध्यान करने से विशेष आनन्द होता है। ज्ञानानन्द से अभिप्राय अतीन्द्रिय आनन्द से है। शद्धोपयोगी मनि का उदाहरण देते हए ब्र. पं. रायमल्लजी कहते हैं - जैसे ग्रीष्मकाल में भूख-प्यास से पीड़ित कोई पुरुष, शीतल जल में गले हुए मिश्री के ढेले को अत्यन्त रुचि के साथ गटक-गटक कर पीता है और तृप्त होता है, वैसे ही शुद्धोपयोगी महामुनि स्वरूपाचरण होने से अत्यन्त तृप्त हैं और बार-बार उसी रस को चाहते हैं। यदि किसी समय में पूर्व वासना के निमित्त से, शुभ उपयोग में लग जाते हैं, तो ऐसा जानते हैं कि मेरे ऊपर आफत आई है, हलाहल जहर के समान यह आकुलता मुझसे कैसे भोगी जायेगी? अभी हमारा आनन्द रस निकल गया है। फिर, हमें ज्ञानानन्द रस की प्राप्ति होगी या नहीं? हाय! हाय! अब मैं क्या करूँ? यह मेरा स्वभाव है।