________________ प्रस्तावना (1) प्राकृत-अपभ्रंश में स्वीकृत सवर्ण द्वित्व : भट्ट (162) खग्ग (397) (2) अपभ्रंश में द्विस्वव्यंजन वाले जो शब्द राजस्थानी में परिवर्तित हुए थे उनमें द्विस्वव्यंजन लोप होकर उसके पूर्व-वर्ण को दीर्घ करने की प्रवृत्ति देख पड़ती है / इसी नियम के विपरीत शब्द के मध्य में द्वित्व के आगमन के लिये पूर्व स्थित दीर्घ वर्ण को ह्रस्व करने का नियम डिंगल में देख पड़ता है / निम्नलिखित उदाहरणों में यह प्रवृत्ति देख पड़ती अ< प्रा - झल्लई (367) < झालइ (396) इ <ई - लिज्जइ (374) लीजइ (267) इ < ए - खिल्लुं (433) < खेलुं (74) उ < ऊ - फुट्टठे (442) < देखो, फूटई (256) उ < प्रो- बुल्लइ (367) < बोलइ (33) इसी प्रकार के द्वित्व में कहीं-कहीं पर-वर्ण भी ह्रस्व कर दिया जाता है : ___ सत्ति (416) < सती (20) (3) कभी-कभी पूर्व तथा पर-वर्ण को प्रभावित किये बिना हो द्वित्वव्यंजनागम - ' हो जाता है : ___फिट्टू (442) < फिट (568); सक्कइ (13) < सकइ (13) (4) मध्यव्यंजन महाप्राण होने पर उसके साथ द्वित्व की स्थिति में अल्प-प्राण का ही संयोग होता है : रक्खाविउ (442); पाउँद्ध रइ (286) (5) (क) द्वित्वव्यंजनागम के पूर्व उर्ध्व रेफ का अधोरेफ होना : गंध्रव (163) < गंधर्व; लग्गि (241), सग्ग, < स्वर्ग (ख) उच्चारण लाघवत्व अथवा छन्द-बन्धन के कारण अक्षर लोप की प्रवृत्ति : संख (163) < सुंखिणी (163); रंभ (165) रंभा; कंति (166) < कांति; नीद्र (166) < निद्रा; (ग) सर्वनाम के प्राचीन रूपों का प्रयोग : प्रम्ह (170, ५८२-संबंध-कर्ता), अम्हनि (५४२-कर्म-अधि०), तूय (440), तूअ (443), तुज्झ (605) ताणंचिय (156), तांम [ 570 A (550) ] कवण (187)