________________ प्रस्तावना A प्रति में 1000 शब्दों में 17 पाठान्तर हैं = 1.7 प्रतिशत , , 587 , = 587 , C , , , 686 , = 68.6 , D , 732 = 73.2 " " 844 84.4 5. ऐतिहासिक प्राधार : प्रतियों में आनेवाले कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी पाठ-निर्णय में सहायक होते हैं / उक्त प्रतियों में दिये गये ऐतिहासिक उल्लेख ग्रन्थ के रचनाकाल तथा लिपिकाल प्रमाणित करने में सहायक हुए हैं / इनके आधार पर प्रतियों की प्राचीनता और कालगत भाषा-प्रवृत्तियों की खोज करने में सहायता मिली है / ये उल्लेख विशेष रूप में इन प्रतियों को प्रशस्तियों में मिले हैं। A प्रति को प्रशस्ति उसकी प्राचीनता सिद्ध करने में सबसे अधिक सहायक हुई है। यह प्रशस्ति मूल रचना की हो प्रशस्ति है। इसमें लेखक ने अपनी गुरु-परम्परा के साथ रचनाकाल (वि० सं० 1645) और रचना-स्थान 'सादड़ी' (मारवाड़) के साथ महाराणा प्रताप और उनके मन्त्री भामाशाह का उल्लेख करते हुए सादड़ी के शासक ताराचन्द का भी उल्लेख किया है, जो ऐतिहासिक सत्य है। इस दृष्टि से इसका महत्त्व अधिक बढ़ जाता है कि यह मूल रचना के अधिक सन्निकट है / प्रतः इसके पाठ अन्य प्रतियों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक सिद्ध हुए हैं। 6. साहित्यिक प्राधार : किसी रचना के पाठ-निर्णय में साहित्यिक प्राधार भी अन्य आधारों के समान ही महत्त्वपूर्ण होता है। रचना-तत्त्वों में छन्द, अलंकार, भाव और रस के उपयुक्त भाषा के रूपों को विभिन्न प्रतियों से तुलना तथा शोध-संशोधन कर पाठ-निर्णय किया गया है / इनमें से कुछ का उल्लेख नीचे किया जाता है (1) प० च० में प्रधान रूप से दोहा और चौपई छन्दों का प्रयोग हुआ है / इन छन्दों में प्रादि से अन्त तक एक विशेष लय है / पाठान्तरों का तथा भिन्न पाठों का कहीं-कहीं इस लय में मेल नहीं बैठता। इसी प्रकार गति-भंग-दोष तथा न्यूनाधिक मात्रा-दोष भी पाठ-निर्णय में सहायक हुए हैं / निम्न लिखित उदाहरण देखियेः ___ मूल - ब्रह्म-विष्ण-शिव सई मुखइं, नितु समरइं जसु नाम (2) यहाँ 'मुखइं' के स्थान पर E प्रति में 'मुखे' पाठ है / यह बहुवचन होने पर भी 'सइं मुखइं' तथा उसकी क्रिया 'समरइं' की लय में नहीं बैठता / 'मुखइं' के स्थान पर B प्रति का 'मुखि' पाठ मात्रा-दोष के कारण प्रमान्य