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________________ 260 गुणस्थान विवेचन और सर्व विद्याधरों के भूत, भविष्यत, वर्तमान के सर्व सुख को एकत्र कर लेने पर भी त्रिकालज्ञ विषयों से उत्पन्न होनेवाले इस इन्द्रियजन्य समस्त सुखों से (विभिन्न जाति का) अनन्तानन्तगुना शाश्वत एवं अतीन्द्रिय सुख सिद्ध परमेष्ठी एक समय में भोगते हैं। लोक के अग्रभाग में स्थित सिद्ध परमेष्ठी अपनी आत्मा के उपादान से उत्पन्न वृद्धि-हास से रहित, पर द्रव्यों से निरपेक्ष, सर्व सुखों में सर्वोत्कृष्ट, बाधा रहित, उपमा रहित, दुःख रहित, अतीन्द्रिय, अनुपम सुख से उत्पन्न और समस्त सुखों में जो सारभूत है, ऐसे सुख का उपभोग निरन्तर करते हैं। सिद्ध भगवान का स्वरूप - तनुवातवलय के अन्त में है मस्तक जिनका ऐसे त्रिजगद्वन्दनीय, अनन्त सुख में निमग्न और नित्य ही अष्ट गुणों से विभूषित सिद्ध परमेष्ठी उस सिद्धशिला से ऊपर अवस्थित हैं / ज्ञान ही है शरीर जिनका ऐसे वे अमूर्तिक सिद्ध कोई कायोत्सर्ग से और कोई पद्मासन से नानाप्रकार के आकारों से अवस्थित हैं। पुरुषाकार मोम रहित सांचे में जिसप्रकार आकाश पुरुषाकार को धारण करके रहता है, उसीप्रकार पूर्व शरीर के आयाम एवं विस्तार में से किंचित् न्यून पुरुषाकार प्रदेशों से युक्त, लोकोत्तमस्वरूप, शरणस्वरूप और समस्त विश्व को मंगलस्वरूप सिद्ध भगवान अनन्तकाल पर्यन्त अपनी आत्मा में ही रहते हैं। इसप्रकार के सिद्ध भगवान विश्व के समस्त अरहंतों और मुनीश्वरों के द्वारा वन्द्य तथा स्तुत्य हैं, मैं भी उनका ध्यान करता हूँ, वे मुझे अपने गुणों के सदृश अपनी सिद्ध गति के समान अनंत सुखमय सिद्धदशा प्रदान करें। धवला पुस्तक 1 का अंश (पृष्ठ 201) सामान्य से सिद्ध जीव हैं / / 20 / / सिद्ध, निष्ठित, निष्पन्न, कृतकृत्य और सिद्धसाध्य - ये एकार्थवाची नाम हैं। जिन्होंने समस्त कर्मों का निराकरण कर दिया है, जिन्होंने बाह्य पदार्थों की अपेक्षा रहित, अनन्त, अनुपम, स्वाभाविक और प्रतिपक्षरहित सुख को प्राप्त कर लिया है, जो निर्लेप हैं, अचल स्वरूप को प्राप्त हैं, संपूर्ण अवगुणों से रहित हैं, सर्व गुणों के निधान हैं, जिनका स्वदेह अर्थात् आत्मा का आकार चरम शरीर से कुछ न्यून है, जो कोश से निकले हुए बाण के समान विनि:संग हैं और लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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