________________ ___259 गुणस्थानातीत : सिद्ध भगवान भेद किया जाता है। यथा - विदेहक्षेत्र से मुक्त, भरत क्षेत्र से मुक्त, उत्सर्पिणी काल के चतुर्थ काल से मुक्त आदि / 3. सिद्ध दशा का उत्पाद मनुष्य क्षेत्र निवास के अंतिम समय में और मध्य लोक में ही होता है। इस दृष्टि से विचार किया जाय तो सिद्धालय तो मनुष्यलोक ही है; तथापि सिद्धदशा उत्पन्न होते ही परमपवित्र सिद्ध जीव का ऋजुगति से तनुवातवलय/लोक के अंत तक गमन होता है और वहीं अनंत काल पर्यंत आठ गुणों से अलंकृत रहते हैं। सिद्ध पूजा में कहा भी है - समकित दर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहना। सूक्ष्म वीरजवान, निराबाध गुण सिद्ध के / / दोहा में आठ गुण अर्थात् पर्यायों का कथन किया है, जो आठों कर्मों के अभाव से व्यक्त हो गये हैं, वे निम्नप्रकार हैं - (देखिए तत्त्वार्थसार अध्याय 8, श्लोक 37 से 40) (1) ज्ञानावरण कर्म के अभाव से अनंत ज्ञान, (2) दर्शनावरण कर्म के अभाव से अनंत दर्शन, (3) दर्शनमोहनीय कर्म के अभाव से क्षायिक सम्यक्त्व / चारित्रमोहनीय कर्म के अभाव से क्षायिक चारित्र Fअनत सुख (4) अंतराय कर्म के अभाव से अनंत वीर्य, (5) वेदनीय कर्म के अभाव से अव्याबाधत्व, (6) आयु कर्म के अभाव से अवगाहनत्व, (7) नाम कर्म के अभाव से सूक्ष्मत्व और (8) गोत्र कर्म के अभाव से अगुरुलघुत्व। सिद्धों का स्थान - ईषत्-प्राग्भार पृथ्वी के ठीक मध्य में रजतमय, दिव्य, सुन्दर, दैदीप्यमान और सीधे रखे हुए अर्ध गोले के सदृश मोक्ष शिला है। यह अत्यन्त प्रभायुक्त उत्तान छत्राकार और मनुष्य लोक के सदृश (45 लाख योजन) विस्तारवाली है। इस शिला की मध्य की मोटाई आठ योजन है, आगे अन्त पर्यंत क्रमशः हीन होती गई है। सिद्धों का मोक्ष-शिला, यह स्थान व्यवहारनय से कहा गया है। निश्चय से प्रत्येक सिद्ध भगवान अपने-अपने आत्मप्रदेशों में अवस्थित हैं। ___सिद्धों का सुख - तीनों लोकों में चतुर्णिकाय के सर्व देवों, इन्द्रों, अहमिन्द्रों, पदवीधारी चक्रवर्ती आदि सर्व राजाओं, भोगभूमिज युगलों