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________________ 251 अयोगकेवली गुणस्थान 39. शंका - परोक्ष-विषय में कहीं पर विसंवाद पाया जाता है, इसलिये सर्व देश और सर्व काल में वचन में प्रमाणता नहीं आ सकती है ? समाधान - यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि उसमें वचन का अपराध नहीं है, किन्तु परोक्ष विषय के स्वरूप को नहीं समझनेवाले पुरुष का ही उसमें अपराध पाया जाता है। कुछ दूसरे के दोष से दूसरा तो पकड़ा नहीं जा सकता है, अन्यथा अव्यवस्था प्राप्त हो जायेगी। 40. शंका - परोक्ष-विषय में जो विसंवाद उत्पन्न होता है, इसमें वक्ता का ही दोष है वचन का नहीं, यह कैसे जाना ? / समाधान - नहीं; क्योंकि उसी वचन से पुनः अर्थ के निर्णय में प्रवृत्ति करनेवाले उसी अथवा किसी दूसरे पुरुष के दूसरी बार अर्थ की प्राप्ति बराबर देखी जाती है। इससे ज्ञात होता है कि जहाँ पर तत्त्व-निर्णय में विसंवाद उत्पन्न होता है, वहाँ पर वक्ता का ही दोष है, वचन का नहीं। 41. शंका - जिस वचन की विसंवादिता या अविसंवादिता का निर्णय नहीं हुआ, उसकी प्रमाणता का निश्चय कैसे किया जाय ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि जिसकी अविसंवादिता का निश्चय हो गया है ऐसे इस आर्ष के अवयवरूप वचन के साथ विवक्षित आर्ष के अवयवरूप वचन के भी अवयवी की अपेक्षा एकपना बन जाता है, इसलिये विवक्षित अवयवरूप वचन की सत्यता का ज्ञान हो जाता है। विशेषार्थ - जितने भी आर्ष-वचन हैं वे सब आर्ष के अवयव हैं, इसलिये आर्ष में प्रमाणता होने से उसके अवयवरूप सभी वचनों में प्रमाणता आ जाती है। 42. शंका - आधुनिक आगम अप्रमाण है; क्योंकि अर्वाचीन पुरुषों ने इसके अर्थ का व्याख्यान किया है ? समाधान - यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ज्ञान-विज्ञान से सहित होने के कारण प्रमाणता को प्राप्त इस युग के आचार्यों के द्वारा इसके अर्थ का व्याख्यान किया गया है, इसलिये आधुनिक आगम भी प्रमाण है। 43. शंका - छद्मस्थों के सत्यवादीपना कैसे माना जा सकता है ? समाधान - नहीं; क्योंकि श्रुत के अनुसार व्याख्यान करनेवाले आचार्यों के प्रमाणता मानने में कोई विरोध नहीं है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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