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________________ 250 गुणस्थान विवेचन समाधान - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि समनस्क जीवों के सर्व देश और सर्व काल में मन के निमित्त से उत्पन्न होता हुआ ज्ञान स्वीकार किया गया है और प्रतीत भी होता है, इसप्रकार के नियम के होने पर, अयोगियों के केवलज्ञान नहीं होता है; क्योंकि यहाँ पर मन नहीं पाया जाता है, इसप्रकार विवादग्रस्त शिष्य को अयोगियों में केवलज्ञान के अस्तित्व के प्रतिपादन के लिये इस सूत्र में फिर से केवली पद का ग्रहण किया। _____35. शंका - इस सूत्र में केवली इस वचन के ग्रहण करने मात्र से अयोगी-जिन के केवलज्ञान का अस्तित्व कैसे जाना जाता है। समाधान - यदि यह पूछते हो तो हम भी पूछते हैं कि चक्ष से स्तम्भ आदि के अस्तित्व का ज्ञान कैसे होता है ? यदि कहा जाय कि चक्षुज्ञान में अन्यथा प्रमाणता नहीं आ सकती, इसलिये चक्षु द्वारा गृहीत स्तम्भादिक का अस्तित्व है, ऐसा मान लेते हैं। तो हम भी कह सकते हैं कि अन्यथा वचन में प्रमाणता नहीं आ सकती है, इसलिये वचन के रहने पर उसका वाच्य भी विद्यमान है, ऐसा भी क्यों नही मान लेते हो; क्योंकि दोनों बातें समान हैं। ___36. शंका - वचन की प्रमाणता असिद्ध है; क्योंकि कहीं पर वचन में भी विसंवाद देखा जाता है ? ___ समाधान - नहीं; क्योंकि इस पर तो हम भी ऐसा कह सकते हैं कि चक्षु की प्रमाणता असिद्ध है, क्योंकि वचन के समान चक्षु में भी कहीं पर विसंवाद प्रतीत होता है। ___ 37. शंका - जो चक्षु अविसंवादि होता है, उसे ही हम प्रमाण मानते हैं ? समाधान - नहीं; क्योंकि सभी चक्षुओं का सर्व देश और सर्व काल में अविसंवादिपना नहीं पाया जाता है। 38. शंका - जिस देश और जिस काल में चक्षु के अविसंवाद उपलब्ध होता है, उस देश और काल में उस चक्ष में प्रमाणता रहती है ? समाधान - यदि किसी देश और किसी काल में अविसंवादी चक्षु के प्रमाणता मानते हो तो प्रत्यक्ष और परोक्ष विषय में सर्व देश और सर्व काल में अविसंवादी ऐसे विवक्षित वचन को प्रमाण क्यों नहीं मानते हो।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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