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________________ गुणस्थान विवेचन तीन कल्याणकवाले तीर्थंकर - जिन चरमशरीरी भव्य आत्माओं ने अपने वर्तमान मनुष्य भव के अविरतसम्यक्त्व या देशविरत गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ किया है, उनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याणक - ऐसे तीन ही कल्याणक होते हैं। __दो कल्याणकवाले तीर्थंकर - जिन चरमशरीरी भव्य आत्माओं ने वर्तमान प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया है। उनके मात्र केवलज्ञान और निर्वाण/मोक्ष कल्याणक ऐसे दो ही कल्याणक होते हैं। 5. मात्र सयोगकेवली गुणस्थानवर्ती अरहंतों का ही इच्छारहित उपदेश होता है। तदर्थ तीर्थंकर परमात्मा तीर्थंकर प्रकृति कर्म के उदय से समवसरण की रचना होती है। सामान्य केवलियों के लिए भी गंधकुटी की रचना भी सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा होती है। ___ सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक तो मुनिराज ध्यानारूढ़ रहते हैं, अतः उनका उपदेश नहीं होता। छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज, पंचम गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक तथा अव्रती श्रावक का उपदेश इच्छा पूर्वक ही होता है। जिनेन्द्र भगवान की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्यध्वनि सर्वांग से तीनों संधिकालों में और मध्यरात्रि में भी छह-छह घड़ी तक (2 घंटे 44 मिनिट पर्यंत) खिरती है और एक योजन पर्यंत सुनाई देती है। इसके अतिरिक्त विशेष पुण्यात्मा गणधरदेव, इंद्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुसार अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि अन्य समय में भी खिरती है। “एक योजन के भीतर दूर अथवा समीप बैठे हुये अठारह-महाभाषा और सात सौ लघु भाषाओं से युक्त ऐसे तिर्यंच, मनुष्य तथा देव की भाषारूप में परिणत होनेवाली तथा न्यूनता तथा अधिकता से रहित, मधुर, मनोहर, गंभीर, विशद, ऐसी भाषा को प्राप्त (जैनेन्द्र शब्दकोष भाग दूसरा पृष्ठ 431, 432) दिव्यध्वनि होती है।" तिलोयपण्णत्ती भाग 2, गाथा 724, 725 के उल्लेखानुसार अवसर्पिणीकाल में होनेवाले 24 तीर्थंकरों के समवसरणों का प्रमाण
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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