________________ 221 उपशान्तमोह गुणस्थान वस्तु-स्वातंत्र्य की मुख्यता से या अध्यात्म की अपेक्षा अथवा उपादान-उपादेय की अपेक्षा अथवा धर्म व्यक्त करने की भावना से सोचा जाय तो कर्म के उपशमन के समय कर्म की अपेक्षा रखे बिना ही जीव के ये दोनों - सम्यक्त्व तथा चारित्र परिणाम होते हैं; ऐसा समझना चाहिए। श्रद्धा गुण की अपेक्षा औपशमिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान में प्रगट होता है। चौथे गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत औपशमिक सम्यक्त्व भाव रह सकता है। ____औपशमिक चारित्र भाव का प्रारंभ तो उपशमक अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले समय से ही होता है और उसकी पूर्णता इस उपशांत मोह गुणस्थान में होती है। ग्यारहवें गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में औपशमिकभाव के लिये अवकाश ही नहीं है। 3. ग्यारहवें गुणस्थान के नाम में जो वीतराग' शब्द आया है, वह शब्द आदि दीपक है। वीतराग शब्द के आदि दीपक का भाव स्पष्ट समझने के लिए हम निम्नप्रकार कथन कर सकते हैं। जैसे - वीतराग उपशांतमोह, वीतराग क्षीणमोह, वीतराग सयोगकेवली, वीतराग अयोगकेवली, वीतराग सिद्ध भगवान। चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान से आंशिक वीतरागता का प्रारंभ होता है। चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी एक कषाय चौकड़ी के भावपूर्वक वीतरागता / पाँचवें गुणस्थान में दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक वीतरागता एवं छठवें गुणस्थान में तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक वीतरागता और संज्वलन कषाय तथा नौ नोकषायजन्य रागद्वेष इस तरह वीतरागता + राग-द्वेष, दोनों - मिश्ररूप भाव रहता है। यह परिणामों की मिश्रता चौथे गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्म सांपराय गुणस्थानपर्यंत यथायोग्य प्रत्येक गुणस्थान में समझ लेना चाहिए। ग्यारहवें गुणस्थान के संबंध में विशेष - ___मुनिराज के उपशम श्रेणी से पतित होने के विषय को मुख्य करके "कर्म बलवान हैं, कर्म जीव को संसार में रुलाते हैं, कर्म के सामने