________________ 220 गुणस्थान विवेचन उतरते समय उपशमक मुनिराज का किसी भी गुणस्थान में मरण संभव है, अर्थात् मरण के समय पर्यंत मुनिराज के श्रेणी का वही गुणस्थान रहता है, जिसमें मरण होता है; परन्तु मरण के पश्चात् विग्रहगति में वे उपशमक मुनिराज अक्रम से चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में ही गमन करते हैं और देवगति में ही जन्म लेते हैं। ___ आगमन - उपशांतमोह गुणस्थान में नीचे के मात्र उपशमक सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान से ही आगमन होता है। जैसे - आठवें, नववें और दसवें - तीनों गुणस्थानों के उपशमक और क्षपक ऐसे दो भेद होते हैं; वैसे उपशांतमोह गुणस्थान के उपशमक और क्षपक दो भेद नहीं हैं। अतः उपशांत मोह एक ही प्रकार का है। विशेष अपेक्षा विचार - 1. ग्यारहवें गुणस्थान में केवल सातावेदनीय का ईर्यापथास्रव एक समय मात्र का ही होता है; तदनंतर वह स्थिति-रहित होने के कारण झड़ जाता है। यहाँ सांपरायिक आस्रव नहीं होता; क्योंकि वे उपशांतमोही मुनिराज पूर्णरूप से कषायरहित अर्थात् वीतरागी हो गये हैं। यद्यपि ईर्या शब्द का अर्थ गमन भी है; परन्तु यहाँ उसका अर्थ योग लिया गया है। इसलिए ईर्यापथ आस्रव का अर्थ केवल योग द्वारा होनेवाला आस्रव होता है। आशय यह है कि जैसे सूखी भींत पर धूलि आदि के फेंकने पर वह उससे न चिपककर तत्काल जमीन पर गिर जाती है; वैसे ही योग से ग्रहण किया गया जो कर्म, कषाय के अभाव में आत्मा से न चिपककर तत्काल अलग हो जाता है, वह ईर्यापथास्रव है। संसार परंपरा के लिये कारण जो सांपरायिक आस्रव है, वह इस ग्यारहवें गुणस्थान में नहीं होता। (विशेष स्पष्टीकरण धवला पुस्तक 13 में पृष्ठ 47-48 पर देखिए।) 2. औपशमिक भावों का सद्भाव इस ग्यारहवें उपशांत मोह गुणस्थानपर्यंत ही रहता है। ___औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दोनों शुद्धभाव तो जीव के त्रिकाली, सहज, शुद्धात्मस्वभाव के आश्रय से ही उत्पन्न होते हैं और उनमें कर्म का उपशम निमित्त मात्र है।