________________ 217 उपशान्तमोह गुणस्थान 100. प्रश्न : विसंयोजना किसे कहते हैं ? उत्तर : अनंतानुबंधी चारों कषायों के अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषाय और हास्यादि नौ नोकषायरूप से परिणमित होने को विसंयोजना कहते हैं। यह विसंयोजना का कार्य चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान पर्यंत कहीं पर भी हो सकता है। उपशांतमोह गुणस्थान के प्रथम समय से ही औपशमिक चारित्र जिसका दूसरा नाम औपशमिक यथाख्यातचारित्र है, वह प्रगट हो जाता है। इस गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर अंतिम समय पर्यंत एक ही प्रकार की वीतरागता, निर्मलता, शुद्धि रहती है / अतः चारित्र एक ही प्रकार का औपशमिक यथाख्यातचारित्र रहता है। ___ मोह परिणाम का अभाव इतनी विवक्षा लेकर सोचा जाय तो बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानों में जो क्षायिक यथाख्यातचारित्र है उसमें और ग्यारहवें गुणस्थान के औपशमिक यथाख्यातचारित्र में तिलतुष मात्र भी अंतर नहीं है। मोहकर्म की सत्ता का सद्भाव और क्षयरूप अभाव की अपेक्षा से जो अंतर है, वह विषय यहाँ गौण है। ११वें गुणस्थान के काल संबंधी जघन्य, उत्कृष्ट एवं मध्यम ऐसे तीन भेद होते हैं और १२वें गुणस्थान के कालसंबंधी कोई भेद नहीं है। तथापि इस ग्यारहवें गुणस्थान से महामुनिराज क्रमशः नीचे के गुणस्थान में कालक्षय या आयुक्षय की अपेक्षा उतरते ही हैं। इस विषय में मोक्षमार्गप्रकाशक के पृष्ठ 265 का अंतिम परिच्छेद दृष्टव्य है - “देखो, परिणामों की विचित्रता ! कोई जीव तो ग्यारहवें गुणस्थान में यथाख्यातचारित्र प्राप्त करके पुनः मिथ्यादृष्टि होकर किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल पर्यंत संसार में रुलता है और कोई नित्य निगोद से निकलकर, मनुष्य होकर मिथ्यात्व छूटने के पश्चात् अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त करता है। ऐसा जानकर अपने परिणाम बिगड़ने का भय रखना और उनके सुधारने का उपाय करना।"