________________ 210 गुणस्थान विवचन विशेष अपेक्षा विचार - 1. अनंतगुणी विशुद्धि आदि आवश्यक कार्य अष्टम गुणस्थानवत इस सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में भी सतत होते ही रहते हैं। 2. दसवें गुणस्थान के नाम के अनुसार ही दसवें में सूक्ष्मलोभ कषाय का उदय रहता है और उदय के निमित्त से अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्मलोभ परिणाम भी होता रहता है; तथापि सूक्ष्मलोभरूप चारित्रमोहनीय विभाव परिणाम से स्वयं का अर्थात् सूक्ष्म लोभ का नवीन कर्मबंध नहीं होता। 96. प्रश्न : सूक्ष्मलोभकषाय नामक द्रव्यकर्म के उदय से सूक्ष्मलोभरूप परिणाम भी मुनिराज के होता है। ऐसी स्थिति में कम से कम सूक्ष्मलोभ का तो बंध होना ही चाहिए न ? आप नवीन कर्मबंध न होने की बात क्यों और किस आधार से करते हो ? उत्तर : लोभरूप कषाय परिणाम अत्यंत सक्ष्म है, जघन्य है। इसलिए चारित्रमोहनीय कर्म का बंध नहीं होता। सूक्ष्म लोभकर्म के उदयानुसार अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्म लोभ का जघन्य परिणाम होता है। जब मोह परिणाम जघन्य होता है तब नवीन मोहकर्म का बंध नहीं होता; ऐसा कर्मबंध का एक अटल नियम है। यदि सूक्ष्म लोभ से भी सूक्ष्म लोभ का बंध मानेंगे तो सूक्ष्म लोभ का उदय आता रहेगा और सूक्ष्म लोभ का बंध होता रहेगा तो जीव को कभी मुक्ति मिलेगी ही नहीं। इस अति महत्वपूर्ण विषय को पंचास्तिकाय गाथा 103 की टीका में स्पष्ट किया है। ___ “जो कर्मबंध की परंपरा का प्रवर्तन कराने वाली रागद्वेष परिणति को छोड़ता है, वह पुरुष, वास्तव में जिसका स्नेह (रागादिरूप चिकनाहट) जीर्ण होता है, ऐसा जघन्य स्नेह (स्पर्शगुण की पर्यायरूप चिकनाहट / जिसप्रकार जघन्य चिकनाहट के सन्मुख वर्तता हुआ परमाणु भावी बंध से पराङ्मुख है; उसीप्रकार जिसके रागादि जीर्ण हो जाते हैं ऐसा पुरुष भावी बंध से पराङ्मुख है।) गुण के सन्मुख वर्तते हुए परमाणु की भाँति