________________ 204 गुणस्थान विवेचन है" ऐसा बताने में अनुकम्पावान आचार्य महाराज किस रहस्य की बात कहना चाहते हैं, इस पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। 92. प्रश्न : इसमें अति गंभीर सोच-विचार की क्या जरूरत है ? सोच-विचार के लिए अवकाश ही कहाँ है ? स्पष्ट शब्दों में आचार्यों ने शास्त्र में बताया है कि - “दर्शनमोहनीय कर्म बलवान है।" उसे शत प्रतिशत मान लेना ही हमारा परमकर्तव्य है। बस ! बात समाप्त हो ही गयी। फिर बाल की खाल निकालने में क्या लाभ है ? ___ उत्तर : दर्शनमोहनीय कर्म को बलवान बताने का कथन व्यवहार-नय का है; इसका अर्थ दर्शनमोहनीय कर्म बलवान नहीं है; ऐसा समझ लेना चाहिए। शास्त्र के अर्थ करने की सच्ची पद्धति यही है। इसी विषय को मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ क्रमांक 250 तथा 251 पर निम्नानुसार कहा है - “व्यवहारनय से जो निरूपण किया हो, उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोड़ना। ....... व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य को और उनके भावों को और कारण कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है; सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है; इसलिए उसका त्याग करना। व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे ऐसे है नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है - ऐसा जानना।" कर्म को बलवान बताकर जीव को अधिक बलवान होने की प्रेरणा देने का आचार्यों का भाव है; न कि जीव को पुरुषार्थहीन बनाने का। जैसे - लोक में अपनी सेना को युद्ध की तैयारी करने का उत्साह दिलाना हो तो सेनापति या राजा शत्रु के शौर्य की जानकारी देता है; वह शत्रु से भयभीत होने के लिये नहीं, अपनी शक्ति बढ़ाने के लिये; वैसे ही यहाँ कर्मों के संबंध में समझना चाहिए। अनंत संसार का कारण मिथ्यादर्शन है और मिथ्यात्व कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की है, जो सर्व कर्मों की अपेक्षा भी बहुत